– गुरुदेव श्री नंदकिशोर श्रीमाली
निखिल मंत्र विज्ञान
बोलने से अधिक मौन रहना सीखना कठिन है। जब हम बोलते हं तो हमारी सारी शक्तियां बहिर्मुखी हो जाती है और जब हम मौन रहते हैं अथवा श्रवण करते हैं, किसी बात को सुनते हैं तो निश्चित रूप से हमारे भीतर विचार-शक्ति तीव्र होती है। दो घंटे बोलते रहने की अपेक्षा दो घंटे मौन रहना ज्यादा कठिन है। इसे आप आजमा कर देखिये, मौन रहकर अपने अन्तर्मन को देखिये, अपने अन्तर्मन की आवाज सुनिये, दूसरों की बात सुनिये, लेकिन तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त मत कीजिये। यहां पर हमें दो शब्दों का सम्बन्ध और उनका प्रभाव जानना चाहिए, जिनमें से पहला शब्द है reaction (त्वरित, तत्काल प्रतिक्रिया अर्थात् बिना सोचे-समझे की गई प्रतिक्रिया) और दूसरा शब्द है response (सोच, विचार, समझ और दूर दृष्टि के द्वारा तर्कसंगत ढ़ंग से दिया गया उत्तर)। जब हम reaction अर्थात् प्रतिक्रिया करते हैं तो ज्यादा हम (असुर) पाशविक वृत्ति के वाहक बनकर प्रतिक्रिया करते हैं, जबकि response में हम सुरों (देवताओं, योद्धाओं) की भांति देववृत्ति को साधते हुए उत्तर देते हैं। responsible बनिये।

हमारा मन तो विश्व का सबसे बड़ा फिल्टर हाउस है, जो अपने आप श्रेष्ठ बातों को ग्रहण कर लेता है और न्येष्ठ बातों को बाहर का बाहर ही रख देता है, लेकिन इस क्रिया के लिए मौन रहना आवश्यक है। जब आप मौन रहकर सुनते हैं तो आपका रोम-प्रतिरोम, नेत्रा, कर्ण, चर्म सब इन्द्रियां जाग्रत हो जाती हैं और किसी भी बात, मुद्दे पर उसके लाभ-हानि, उचित-अनुचित, भविष्य में उस बात के पड़ने वाले प्रभावों को सोच समझकर निर्णय करते हैं और इस प्रकार आप शक्ति तत्व को पूर्ण रूप से ग्रहण करते हैं।
उतना ही बोलो, जितना आवश्यक है, अपने शब्दों का चयन बहुत सावधानी से करो। शब्द रूपी वाण का प्रहार बड़ा ही तीव्र होता है, इसलिए आप अपने वचनों के द्वारा किसी को आघात पहुंचाने का प्रयत्न कभी भी नहीं करें। आपको तो अपनी शक्ति का, अपने ही विकास (उन्नति) के लिए उपयोग करना है। आप क्या काम करते हैं? आपका लक्ष्य क्या है? यह बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आप जिस प्रक्रिया को अपनाते हैं, वह महत्वपूर्ण है। अतः साध्य नहीं, साधन का महत्व अधिक है। अर्थात् क्रिया (साधना) का महत्व ही सर्वसिद्ध है। आपके और लक्ष्य के बीच में दूरी तय करने के लिए प्रक्रिया ही साधन है। आपको प्रक्रिया में आनन्द आना चाहिए। ज्यादातर लोग जीवन में हताश, उदास, निराश क्यों दिखाई देते हैं? उसका एकमात्र कारण उनको अपने कार्य की प्रक्रिया में ही आनन्द नहीं आ रहा है। यदि आपको अपने (एक्शन) पर ही आनन्द नहीं आयेगा तो लक्ष्य की प्राप्ति हो भी जायेगी तो भी आनन्द कैसे आयेगा? मंजिल प्राप्त करनी है, लेकिन मंजिल तक पहुंचने के मार्ग का भी पल-पल आनन्द लेना है। यदि श्वास भी ले रहे हो तो श्वास लेने की प्रक्रिया में भी आनन्द आना चाहिए। यदि आपने अपनी जिन्दगी में अपने आप से जोर-जबर्दस्ती की तो आनन्द समाप्त हो जायेगा। आपको ही अपनी सारी क्रिया करनी है तो इस क्रिया की विधि है, उसमें आनन्द का तत्व डाल दीजिये। क्रिया में आनन्द आ गया तो काम अपने आप आनन्दपूर्वक सम्पन्न हो जायेगा।
तुम्हारी श्रद्धा तुम्हारी अपनी निधि (सम्पत्ति) है, तुम्हारी सबसे मूल्यवान वस्तु है, तुमने उसे अपने मन में धारण किया है। यह श्रद्धा जन्म से तुम्हारे साथ नहीं आयी है, किसी ने श्रद्धा के लिए तुम्हें विवश नहीं किया है। श्रद्धा तो बड़ा ही प्यारा भाव है, जो हृदय और मन में बहुत-बहुत गहरे से आता है। श्रद्धा तो कर्तव्य से भी बड़ा मूल्यवान वस्तु है, सबसे अमूल्य भाव है। इसे हृदय में संभालकर रखना, इसका ध्यान रखना। यदि किसी के कहने से, कुछ सुनने से, कुछ देखने से तुम्हारी श्रद्धा टूटती है तो तुम्हारी श्रद्धा कच्ची है, फिर वह बड़ा ही भयावह हो सकता है। उस दिन तुम्हारा मन खण्ड-खण्ड हो सकता है, फिर कुछ नहीं बचेगा। जिस प्रकार अन्तर्मन की आवाज किसी दूसरे को सुनाई नहीं देती, ठीक उसी प्रकार श्रद्धा के टूटने की आवाज भी किसी को सुनाई नहीं देती और हो सकता है, तुम पूर्ण रूप से विचलित हो जाओ।
जीवन खण्ड-खण्ड न हो जाय, इसलिए श्रद्धा को संभाले रखना एवं श्रद्धा बनाये रखना ही जीवन का अमृत है। श्रद्धा में बहुत गहरी शक्ति है, श्रद्धा में कोई भार नहीं होता, श्रद्धा से तो मन हल्का हो जाता है, मन का बोझ उतर जाता है। श्रद्धा तुम्हारा व्यक्तिगत भाव है, जहां-जहां तुम जाओगे, श्रद्धा तुम्हारे साथ चलेगी। तन थक सकता है, बाधाएं आ सकती हैं, लेकिन श्रद्धा कभी थकती नहीं है। वह तो तन और मन को सम्बल, सहारा देती रहती है। श्रद्धा तुम्हारा ही प्रतिरूप है, तुम्हारे ही मन का दर्पण है और यह दर्पण इतना मजबूत है कि इसे कोई तोड़ ही नहीं सकता है। तुम्हारी वास्तविक आनन्दानुभूति तो इस श्रद्धा के चारों ओर ही भ्रमण करती है। जीवन का सबसे सुखद भाव ही श्रद्धा है। श्रद्धावान लभते ज्ञानम- श्रद्धा में ही लाभ है, परमानन्द है।
(साभार: निखिल मंत्र विज्ञान)