धर्म के प्रवाह में बहना ही है धार्मिकता

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गुरुदेव श्री नंदकिशोर श्रीमाली जी

श्री नन्दकिशोर श्रीमाली

धर्म के प्रवाह में बहना धार्मिकता है। वर्तमान समय में धर्म विवाद का विषय वस्तु बन गया है। इसका कारण है कि धर्म के संदर्भ में हमारी समझ अंग्रेजी भाषा के ‘रिलीजन’ शब्द से प्रभावित होकर अत्यंत संकीर्ण हो गई है। धर्म का अर्थ रिलीजन से कहीं अधिक विस्तृत और व्यापक है। धर्म शब्द की उत्पत्ति ‘धृ’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ धारण करना है। ‘धारयति इति धर्म:’, इस संसार में जो भी धारण करने योग्य गुण है, उसे धर्म कहा जा सकता है। इस परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है कि हर पदार्थ का जो मौलिक गुण है, वह उसमें निहित धर्म है। जैसे पानी का धर्म प्यास बुझाना है। अगर उबाल देंगे तो वाष्प बन जाएगा, पर ठंडा होकर पुन: प्यास बुझाएगा। जमा देंगे तो बर्फ हो जाएगा, फिर पिघलकर प्यास बुझाएगा। किसी भी स्थिति में पानी अपना मौलिक गुण, अपना धर्म नहीं छोड़ता है।

Symbolic Photo (Courtesy : Google Images)

प्रत्येक पदार्थ में निहित वह विशेष गुण, जो उसे उपयोगी बनाता है, उसका धर्म है। अर्थात धर्म और कर्म में कोई अंतर नहीं है। प्रत्येक परिस्थिति में धर्म अनुसार आचरण करना हमारे जीवन का कर्म है और जब हम ऐसा कर्म करते हैं, तब हम स्वयं ही सुखों को निमंत्रित कर लेते हैं। इस सत्य को स्वीकार करते हुए चाणक्य कहते हैं कि, ‘सभी सुखों के मूल में धर्म कार्य कर रहा है और प्रत्येक मनुष्य में उपस्थित विशेष गुण धर्म है, जो उसे पशु से अलग करता है। भोजन, निद्रा, भय और मिथुन, मनुष्य और पशु दोनों में पाए जाते हैं। परंतु धर्म मनुष्य को पशु से भिन्न करता है। धर्म वह विशेष प्रवृत्ति है, जो सिर्फ मनुष्य में होती है।यहां पर विचार करने योग्य है कि सिर्फ मनुष्य ही है, जो अपने जीवन को बड़ा बनाना चाहता है, जिसके मन में कामनाएं उत्पन्न होती हैं, भविष्य को सुरक्षित रखने की इच्छा होती है और जो अपने कल को बेहतर बनाने के लिए आज कर्मशील होने के लिए तत्पर है। पशुओं को कल की चिंता नहीं होती है। यानी धर्म वह प्रयोजन है, जिसके द्वारा जीवन को महानता की ओर ले जाया जा सकता है।
इसी बात को व्यास जी ने महाभारत के अंतिम श्लोक में कहा है-

ऊर्ध्व बाहुर्विरौम्येष: न च कश्चिरव्छणोति माम्।
धर्मादर्थश्च कामश्च स: धर्म: किं न सेव्यते।।

मैं दोनों भुजाएं उठाकर कह रहा हूं, अर्थात इस बात को पूरे जोश के साथ दोहरा रहा हूं कि धर्म का आचरण करने से ही मनुष्य के जीवन में अर्थ और काम की उपलब्धि होती है, फिर धर्म को छोड़कर किसी और की शरण में आप कैसे जा सकते हैं? शास्त्र सहर्ष स्वीकार करते हैं कि जिससे जीवन में श्री, अर्थात उन्नति और सिद्धि प्राप्त हो, वह धर्म है। इसमें कोई दो राय किस तरह से हो सकती है कि धर्म का अर्थ ही उत्तम प्रकार के कर्म करना है, जिसके द्वारा कामनाओं को पूर्ण किया जा सके। सीधे शब्दों में कहें तो कामनाओं को पूरा करने के लिए कमाना पड़ता है और कमाई में जब कमी होती है, उस समय सुख, दीन-हीन हो जाता है। धर्म का अर्थ ही कर्म को करना है, कामनाओं को पूर्ण करना है और उसके लिए कर्म आवश्यक है। कर्म से मुंह मोड़ लेना कामनाओं से मुंह मोड़ लेना है। हम कामनापरक संसार में रहते हैं, जहां पर प्रत्येक वस्तु का विकास कामनाओं के कारण होता है, कामनाओं के कारण ही यह संसार चल रहा है, क्योंकि हम अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए कर्म करने को तत्पर होते हैं।

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धर्म की हानि उस समय होती है, जब हम बिना कर्म किए छल से या बल से कामनाओं को पूरा करना चाहते हैं, जिसके फलस्वरूप ‘शोषक और शोषित’ दो शब्दों की उत्पत्ति होती है, लेकिन उससे भी अधिक धर्म की हानि तब होती है, जब हम शोषण का प्रपंच शांत भाव से देखते हैं, एक तरह से उसे अपना मौन समर्थन प्रदान करके शोषण का तंत्र सुदृढ़ करते हैं।एक बात अपने जीवन में गांठ बांधने की है, जब भी आप अपने इर्द-गिर्द शोषण होता देखकर शांत रहते हैं, उस समय यह याद रखें कि आप भी भीष्म की भांति अपने कर्म से हट रहे हैं और अपने जीवन के अर्थ को सार्थक नहीं कर रहे हैं। प्रतीक्षा कीजिएगा, आपने भी अपने लिए शर-शैय्या की व्यवस्था कर ली है। महाभारत का प्रसंग सब को ज्ञात है कि भीष्म किस प्रकार आखिरी समय में अर्जुन द्वारा दी गई बाणों की शैय्या पर लेटे हुए थे, वाणों की शैय्या उन सभी विचारों का समूह है, जिन पर समय रहते कार्य करने से भीष्म चूक गए थे। अपने कुटुंब के अग्रज थे भीष्म, परंतु उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा को धर्म से अधिक महत्ता दे दी, जिस कारण लाक्षागृह, द्यूत-क्रीड़ा, द्रौपदी अपमान, अभिमन्यु वध हुआ, सारा अन्याय हुआ और वे मौन रहकर सहन कर गये। अंतिम समय में बाणों की शैय्या और कुछ नहीं, धर्म से विमुख हुआ उनका अपना कर्म था, जो उनके समक्ष खड़ा था।इस जीवन का सिद्धांत है कि जब भी हम क्रिया के विपरीत जाते हैं, उस समय धर्म की हानि होती है, क्योंकि इस संसार में कर्म का नियम शाश्वत है। उग्र भाव से किए गए कर्म को तप कहा गया है, जिस क्षण हम कर्म से विमुख हो जाते हैं, हम अपने धर्म के विरुद्ध चले जाते हैं अर्जुन की तरह, जिन्होंने कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अपना गांडीव धनुष उतारकर रख दिया था और धर्म स्थापना के मार्ग में बाधक बन गए थे। उनके मन का संशय दूर करने के लिए श्रीकृष्ण को आना पड़ा, भगवत गीता में भगवान ने ऐसा आश्वासन दिया है कि यथार्थ में जब भी धर्म की हानि होगी, उस समय धर्म स्थापना हेतु हुए वे स्वयं अवतरित होंगे।यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।क्या आपने कभी चिंतन करने का प्रयास किया है कि धर्म स्थापना के लिए ईश्वर को क्यों आना पड़ेगा? क्योंकि ईश्वर धर्म स्थापना का कार्य मनुष्यों के द्वारा ही संभव कराएंगे, उनसे यथेष्ट कर्म करवाकर। यही कारण है कि धर्म के संबंध में भगवत गीता में बार-बार ‘अपना धर्म और पराया धर्म’ का जिक्र हुआ है।

अर्जुन को समझाते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि अपने धर्म का थोड़ा सा भी पालन महान भयों से रक्षा करता है, परंतु कई बार अपना धर्म क्या है, इस विषय पर भी विचार स्पष्ट नहीं होते हैं। अर्जुन के मन में भी तो यही शंका थी और वे क्षत्रिय धर्म एवं स्वजनों के प्रति अपने कर्तव्य के बीच उलझ गए थे कि युद्ध करें, या ना करें?हम सबके जीवन में कभी न कभी यह दुविधा की स्थिति आती है कि धर्म का आचरण करें या ना करें। इस दुविधा का निराकरण श्री कृष्ण इन शब्दों से कर देते हैं कि, ‘अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु प्राप्त होती है तो वह श्रेष्ठ है।’ अर्थात धर्म और यथोचित कर्म के बीच में कोई अंतर नहीं है। हर परिस्थिति में चिंतन मनन से युक्त होकर कर्म करना ही धर्म है और इस मार्ग पर चलने के बाद आप निशंक हो जाते हैं, क्योंकि यह सुख का मार्ग है। तुम्हारा धर्म और कर्म अलग-अलग नहीं है। आनंद भाव से कर्म करना ही धर्म है। अत: अपने कार्य को अपना धर्म समझते हुए आनंद के साथ संपन्न करना है। इसलिए तुम ‘मनसा वाचा कर्मणा…’ के सिद्घान्त को समझते हुए अपना कार्य करो। मन में जो भाव उठते हैं, वे वचन के रूप में प्रकट होते हैं और जब मन तथा वाणी में एकात्मकता स्थापित होता जाती है, तब वह क्रियाशीलता का समय होता है। मन से ही कर्म की शक्ति प्राप्त होती है। इस जीवन में धर्मज्ञ है, धर्म भीरु नहीं। किसी भी वस्तु, व्यक्ति अथवा विषय से भय उस समय तक ही रहता है, जब तक हमें उस विषय का पूर्ण ज्ञान ना हो जाए। धर्म का वास्तविक अर्थ यथोचित कर्म करना है, जो जीवन को उन्नति की ओर ले जाए और इस प्रवाह में बहने का नाम ही वास्तविक धार्मिकता है।मनुष्य का स्व-चिंतन होना चाहिए। उसके दिमाग में लाखों विचार आते-जाते हैं, लेकिन विचारों को अपने हृदय और मन में उतारना है। हर समय चैतन्य रहना आवश्यक है। जो जागते हुए भी मानसिक रूप से सोते हैं, वे श्रेष्ठ नहीं हो सकते हैं। एक श्रेष्ठ शिष्य को चैतन्य रहते हुए श्रेष्ठ विचारों को ही अपने मन-मस्तिष्क में उतारना चाहिए। धर्म और धन के संबंध में अपना और पराया जैसे शब्द आते हैं, क्योंकि धर्म और धन संयुक्त हैं और इन दोनों को जोड़ने वाला सेतु ‘कर्म’ है। धर्म और अर्थ की प्राप्ति काम से संभव है और जिसने जीवन का यह सूत्र समझ लिया, वह मुक्त हो गया।
(साभार : निखिल मंत्र विज्ञान)

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