
वर्ल्ड वार- 2, जब पहली बार युद्ध इंसानों के बीच न होकर वैज्ञानिक अविष्कारों के बीच हुआ, जिसमें इंसानों को अपना आहार बनाकर विज्ञान ने विशाल और विनाशकारी रूप लेना शुरू किया। यह माना जाता है कि उस वक्त कई बड़े तकनीकी और स्वास्थ्य-संबंधी अविष्कार हुए, परंतु क्या उनमें से कोई भी अविष्कार इंसान की उम्र बढ़ा सका? समय के साथ औसत उम्र कम ही होता गया, अर्थात जितना हम बिना वैज्ञानिक सफलता के जिया करते थे, अब उतना भी नहीं जीते। डिजिटल दुनिया की पहली नींव भी सन 1939 में ही रखी गयी एलन तुरिंग द्वारा, पर प्रश्न यह है कि क्या इस अविष्कार ने हमें मेहनती बनाया या आलसी?
कहते हैं विज्ञान श्राप या वरदान, उसके इस्तेमाल के आधार पर बन जाता है। उचित इस्तेमाल तो वरदान, वरना अभिशाप, पर हम भूल जाते हैं कि इंसान को आसान रास्ता पसंद आता है, भले उसे पता हो कि मेहनत सही रास्ता है। हर अविष्कार को इंसान खुद के विनाश के लिए प्रयोग करता रहा, मानो सब भस्मासुर के ही वंशज हों।
दवाइयां बनीं तो चिकित्सालय व्यापार और चिकित्सक व्यापारी बन गया, जो एक पर्चे पर फ७ लिखकर आपकी महीने भर की कमाई एक पल में निगल जाता है। हाइब्रिड ने सब्जियों और अनाजों को जहर बना डाला, जो पेट तो ज्यादा लोगों की भरता रहा, पर जहर बनकर। इससे तो अच्छा होता हम वैज्ञानिक की जगह इंसान बनते और दो-दो निवाला आपस में बांटकर खाते। गाड़ियां आईं तो कोलेस्ट्रॉल बढ़ा दिया, प्रदूषण से सांस लेना दूभर हो गया, शरीर पर चर्बी की परत बढ़ती रही और दिमाग में पता नहीं कैसे गाड़ियां स्टेटस सिंबल बन गईं। मोबाइल ने दूरियां घटा दी या बढ़ा दी, आप स्वयं तय करें, कागजी मुद्रा के आने के बाद अब डिजिटल मुद्रा! राजनीति की जगह कूटनीति! इंसानियत की जगह हैवानियत! वाह क्या अविष्कार है! प्रकृति के मुंह पर विज्ञान एक तमाचा से ज्यादा कुछ नहीं रह गया।
आप सोच रहे होंगे कि यह लेख नकारात्मकता से भरा है, क्योंकि ऐसा सोचना आसान है, पर सच तो यह है कि खुद विज्ञान भी हमारी नकारात्मक, आलसी और विध्वंशक ऊर्जा का शिकार है। हमने बौद्धिक क्षमता बढ़ाने के अविष्कारों की जगह कैलकुलेटर बनाना आसान समझा। ओछी सोच का इलाज ढूंढ़ लेने से कई गुप्त रोगों का जन्म ही नहीं हो पाता। समाज को कानून की नहीं, सोच में बदलाव की जरूरत ज्यादा रही है, पर हम आज भी परेशानियों की जड़ की जगह शाखाएं काटने की कोशिश में उलझे हैं।
चलिए! अब यह लेख खत्म हुआ, समर्थन और विरोध दोनों ही अलग-अलग मस्तिष्क में आ रहे होंगे, पर बदलाव नहीं आएगा। इसलिए समापन करते हैं, क्योंकि किसी महापुरुष ने कहा है कि भगत सिंह का अवतार सब चाहते हैं, पर अपने नहीं, पड़ोसी के घर में।
(लेखक युवा साहित्यकार व समीक्षक हैं।)