विजय देव झा
हास्य सम्राट हरिमोहन झा मैथिली के प्रथम व अंतिम साहित्यकार रहे हैं, जिनकी रचना पर आधारित फिल्म कन्यादान बनी थी। नानाजी का सौभाग्य था की इस फिल्म में वह लीड भूमिका में थे। उसके बाद से आजतक मैथिली के किसी उपन्यास या किसी भी रचना पर आधारित कोई फिल्म नहीं बनी। हरिमोहन झा स्वयं में साहित्य की एक विधा हैं और ऐसा बेजोड़ साहित्यकार आपको किसी भाषा साहित्य में नहीं मिलेगा। उनके देहावसान के बाद उनके योग्य पुत्रों ने उनके कृतियों का पुन: संस्करण प्रकाशित किया और उनकी कुछ कथाओं का संग्रह साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया।
उनकी कृतियों को लोग इसलिए आतुर होकर नहीं खोजते हैं कि इसे सिलेबस में पढ़ाया जाता है। आम पाठक जो मैथिली साहित्य के बारे में अधिक नहीं जानते हैं, वे भी हरिमोहन झा को पढ़ना चाहते हैं। उनकी किताबें दसअसल कस्तूरी को खोज की तरह है, क्योंकि ये दुर्लभ व अप्राप्य हैं। कॉपीराइट के विरुद्ध फर्जी लोग उनकी किताबों की फोटोकॉपी कर बेचते हैं। सड़े हुए कागजों पर उसे छाप कर बेचते हैं और लोग मुंहमांगी कीमत देते हैं।

क्या इस बात की जानकारी श्रद्धेय हरिमोहन झा के परिवार के उन सदस्यों को नहीं है? क्या वह आर्थिक रूप से इतने सक्षम नहीं हैं कि किताबें छपवा सकें? हमारे पास कॉपीराईट तो है, लेकिन हम उनकी किताबें नहीं छापेंगे। उनकी कई अप्रकाशित रचनाएं हैं, लेकिन हम उसे नहीं छापेंगे। उन दुर्लभ अमोल रचनाओं को संदूक में सड़ जाने दीजिये, हम तो बस कॉपीराइट का मुहरमाल बनायेंगें।
मेरे पास भी उनकी लिखी एक दुर्लभ रचना है, जिसका किसी ने नाम भी नहीं सुना होगा। किसी को दे नहीं सकता हूं, क्योंकि कॉपीराइट का टंडा ना शुरू हो जाये। धीरे धीरे एक दिन हरिमोहन झा लुप्त हो जायेंगें। नुकसान किसका? हरिमोहन झा करोड़ों मैथिलों के श्रद्धा विंदु हैं, एक मूर्तिभंजक जिसकी रचनाएं मिथिला में रेनेसां का समर्थन करती हैं।
मैथिली में क्वालिटी फिल्मों का अकाल है। फिल्म तो बनती ही नहीं हैं। जो अगर कभी बनती हैं, उसका टाइटिल देख कर समझ में आ जाता है कि इसके अंदर एक भाषा विशेष की आत्मा घुसी हुई है। मैथिली फिल्मों से कमाई नहीं होती है और अगर ऐसे में अगर कोई व्यक्ति जो मैथिली सिनेमा के लिए गंभीर है, हिंदी फिल्मों में ढ़ेर सारा कैरियर आॅप्शन के बावजूद मैथिली में कोई स्तरीय फिल्में बनाता है, तो उसकी हौसला अफजाई होनी चाहिए न कि आप उसको कॉपीराइट दिखा-दिखाकर हतोत्साहित करें। किसी प्रतिष्ठित व लोकप्रिय साहित्यकार की संतति होना सौभाग्य ही है और उस सौभाग्य में चन्दन का सुबास आ जाएगा, अगर आप उनकी थाती को आगे बढ़ाएं। हम खुद कुछ नहीं करेंगें, लेकिन दूसरों को भी कुछ नहीं करने देंगें। किसी लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार के वंशज उन स्वनामधन्य साहित्यकार की कृतियों के कस्टोडियन होते हैं, मालिक नहीं। मैं खट्टर काका की डायरी लिखता हूं। खट्टर काका हरिमोहन झा की रचनाओं के एक प्रसिद्ध पात्र हैं। फिर यह भी कॉपीराइट के अंतर्गत माना जाए। इसे कहते हैं कि हीरे की लूट और कोयले पर छाप।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व समीक्षक हैं।)
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