आचार्य धीरेन्द्र झा
सजग प्रहरी देखो मंजर
आंखों को अपने बंद कर
वेदना करुण क्रन्दन सुनो
कानों को अपने खोल कर।
चीत्कार ही चीत्कार है
वातावरण में गूंजता
नौनिहालों के शव पर
लोटती ममता यहां।
बाहों में भरकर रोती कोई
रोते-रोते बेसुध सी खोई
जो खोया है उसने, अभी
लौटा नहीं सकता कोई कभी।
बढ़ रही संख्या मृतकों के नाम की
घोषणा-उद्घोषणा किस काम की?
गर्मी में लीची, ये बात आम है
पूरा नहीं तुम्हारा इंतजाम है।
चमकी बुखार के तपन की
मन ही मन भावना करो
मृतक की मां की जगह
खुद की कल्पना करो।
उठाओ कदम फिर ऐसा
आए न मंजर अबकी जैसा।