सनातन संस्कृति और भारतीय विदेश नीति

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इन्डोनेशिया के शहर बाली को भारतीय जनमानस में अधिकांश एक पर्यटन स्थल जैसा मानते हैं । मेरे खयाल से बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि इस शहर की सांस्कृतिक विरासत हमारी सनातन संस्कृति का ही विस्तार है। आप वहाँ चले जाएं तो पूरे शहर में हर घर, हर सड़क, हर चौराहे पर आपकों सनातन संस्कृति के भाव और भंगिमाओं से सराबोर लोग या कोई मूर्ति या कोई कथाचित्र मिल जाएगा। वहाँ हर घर, हर गाँव और हर भवन में एक मंदिर मिल जाएगा और हर सुबह, दुपहर और शाम आपको स्त्री और पुरुष हाथों में थाली लिए इन छोटे और बड़े मंदिरों में पूजा के लिए आते हुए दिख जाएंगे। महाभारत और रामाणय यहाँ सडको पर बड़ी -बड़ी मूर्तियों और बड़े भवनों की दीवारों पर कलाशिल्प के रूप में दिख जाएगा । जहाँ एक ओर भारत मे राम सेतु के होने अथवा ना होने के लिए अदालतों में वाद ओर विवाद होते हैं, वहीं दूसरी ओर भारत की भूमि से हजारों किलोमीटर दूर बाली द्वीप में शहर के बीचो बीच, एकदम व्यस्त सड़क पर भव्य मूर्तिशिल्प है जिसमें श्रीराम की तेजस्वी मूर्ति धनुष लिए खड़ी है और चारो ओर वानर सेना सेतु का निर्माण कर रहे हैं। आप थोड़ी दूर और चले तो आपको अगली चौरहे पर कर्ण और घटोतकच्छ का भीषण युद्ध होता दिखाई देगा। हमारे देश में जहाँ 85% सनातनी है, और जो धरती सनातन संस्कृति की जननी है, वहाँ इस बात पर वाद विवाद होते है कि राम थे अथवा नही ये , परन्तु इन्डोनशिया जो मुस्लिम बाहुल्य देश है वहाँ के इस प्रान्त में सडकों पर हर गली और हर फुटपाथ पर सनातन संस्कृति मुखर रूप में विदमान है। मुझे आश्चर्य और दुख इस का होता है कि इन विसंगतियों के बारे में हमारे यहाँ कोई वाद भी नहीं होता है। हमारे पूरे दक्षिण- पूर्व एशिया में लोग भारत को सांस्कृत्तिक धरोहर और सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से देखते हैं और भारत यहाँ के लोग और यहाँ की सरकारें अपने सनातन परंपरा पर शर्मिन्दगी महसूस करती है।

आज इस लेख में मै इस बात की चर्चा नहीं करना चाहता कि सनातन सही है या नहीं, पर मैं इस बात की चर्चा करना चाहता हूँ कि कितने दक्षिण एशिया से संबन्धित हमारी विदेशनीति में धर्म- निर्पेक्षता जैसे सिद्धान्तों को क्यों रखा गया। मेरे विचार से हमारी सरकारों को तो कोई विदेश नीति बनाने की जरूरत ही नहीं है। उन्हें बस सनातन संस्कृति को जिन्दा रखना है और उसके सांस्कृतिक तारों को इन देशों और प्रदेशों से जोड़ना हैं । विदेश मंत्रालय में हमारे सारे राजनेताओं और नौकरशाहों को भारतीय इतिहास, और साहित्य पढ़ाना चाहिए और हमारे सारे विदेश नीति की समस्याओं का समाधान हो जाएगा। मुझे मालूम है कि मैं अतिशयोक्ति में बात कर रहा हूँ , पर मेरी बात अपने आशय में उतनी सत्य है जितनी झूठ इस बात मे है कि ” भारत ने कभी दुनिया में भौगोलिक विस्तार नहीं किया ” । मेरी ये बात सर्वप्रचलित विचारों से एकदम मेल नहीं खाती , पर मैंने ये लेख लिखने का विचार इसलिए नहीं किया क्योंकि मुझे वही लिखना था जो मैने पढ़ा है और जो मैने परीक्षाओं में रट कर लिखा है। मैं तो वह लिखना चाह रहा हूँ जो मैंने अपने स्वध्ययन , मनन और अपने अनुभव से सीखा है।

विदेश नीति का महत्व

इन सब से पहले यह जरूरी है समझना कि विदेश नीति क्यो महत्वपूर्ण है? आज के वैश्विक परिवेश में देश का कुछ भी आयाम ऐसा नहीं है जो विश्व के किसी अन्य देश की घटनाओं से प्रभावित नहीं होता है। आज देश का किसान सिर्फ, अपने देश के मानसून से ही नहीं अपितु अन्य देशों के खेती के पैदावार से भी प्रभावित होता है। आज भारत का किसान उक्रेन के युद्ध से प्रभावित हो रहा है क्योंकि भारत भी कुछ हद तक खाद और उर्वरक उक्रेन से आयात करता है । इसी तरह से उक्रेन युद्ध से हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा प्रभावित होती है क्योंकि हमारी सामरिक महत्व के अधिकांश सैन्य सामान रूस से आयातित हैं। चीन से हम एक ओर सीमा विवाद और युद्ध में लगे हैं तो दूसरी ओर कई महत्वपूर्ण चीजें आयात भी करते है। आज के वैश्विक परिवेश में जहां सोशल मीडिया इतना ज्यादा प्रभावी हो रहा है हमें अपनी सांस्कृतिक सुरक्षा की भी चिन्ता करनी पड़ती है I तो इन प्रस्तावना के साथ ही मैं जरा इस बात पर भी विचार करना चाहूंगा कि विदेश नीति का उद्देश्य क्या होता है मेरी समझ मे। मैं कोई विदेश नीति का विशेषज्ञ नहीं हूँ इसलिए ये जरूरी है कि इस विषय में मैं अपनी समझ को स्पष्ट कर दूँ ।

विदेश नीति – उद्देश्य

किसी भी देश को एक विदेश नीति क्यों चाहिए? ये बहुत जरूरी है कि मैं इस उद्देश्य के बारे में लिखू और फिर अपनी बात उन्ही उद्देश्यों कर चारो ओर बयान करू , वरना मैं जो भी लिखूंगा वह बस एक शब्दों का आडम्बर रह जाएगा ।

मेरे हिसाब से विदेश नीति का उद्देश्य सिर्फ एक होता है – राष्ट्रीय हित (वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए )

राष्ट्रीय हित के तीन आयाम होते हैं

राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था और राष्ट्रीय सांस्कृतिक विकास

तो सबसे पहले हम यह देखते हैं कि आज तक हमारी विदेश नीति किन सिद्धान्तों पर चलती रही और क्या इन सिद्धान्तों ने देश की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और संस्कृति को बढ़ावा दिया है या नहीं। तो सबसे पहले मैं यह कहना चाहूंगा कि मुझे भारतीय विदेश नीति में कोई नीति की निरंतरता नहीं दिखती और दुर्भाग्य से मैं इन सभी नीतिगत सिद्वान्तों को सिद्धान्त नही वरन भ्रातियां मानता हूँ । ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी भी देश की विदेश नीति उसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परंपरा से अलग नहीं होना चाहिए , पर हमारी विदेश नीति हमारे एतिहसिक और संस्कृतिक सच्चाई से कोसो दूर है। हमारी विदेश नीति आजतक सात मुख्य भ्रतियों से चलती रही हैं और ये भ्रांतियां निम्नलिखित है –

पहलीभारत ने कभी किसी देश पर आकमण नहीं किया । हमने हमेशा किया । राजा का धर्म अश्वमेध करना होता था और अश्वमेध राज्य के विस्तार के लिए किया जाता था । राजा राजेन्द्र चोल ने दक्षिण पूर्व में राज्य किया था और अपनी सभ्यता की ऐसी छाप वहां छोड़ी थी कि आज भी दुनिया का सबसे बड़ा सनातन मन्दिर भारत में नहीं परन्तु कम्बोडिया में है। सो हमें इस बात को मानना पड़ेगा कि हमने आक्रमण किया था और आक्रमण करना हमारा धर्म सम्मत था । अखंड भारत की परिसीमा बाली तक कभी तो थी और ऐसा सिर्फ प्रवासी जनता की वजह नहीं हुआ होगा। विजयनगर साम्राज्य पूरे दक्षिण पूर्व में फैला था और उनका वहाँ अधिपत्य था। अहोम साम्राज्य पूरे उत्तर पूर्व और म्यांमार तक फैला था । किसने कहा कि हम आक्रमण नहीं करते थे और अश्वमेध यज्ञ बस एक पूजा पद्धति भी ।

कर्ण- घटोत्कच्छ युद्ध बाली में
घटोत्कच्छ युद्ध श्रोत गूगल

दूसरीहमने कभी धर्म का प्रचार नही किया । हमने हमेशा किया। यूं हीं नहीं थाईलैंड जावा सुमात्रा इन्डोनेशिया बर्मा कम्बोडिया इन सारे देशों में सनातन परम्परा आज भी एकदम मुखर रूप में विद्यमान हैं। हाँ ये जरूर है कि हमने इसके लिए तलवार नहीं चलाई पर हमने दूत और धर्म गुरु तो हर युग और हर काल में भेजे । सीरिया के मन्दिरों में कमल के और हाथी के भित्ति मूर्त यूं ही नही मिलते, या सम्रट अशोक को घम्म गुरुओं को पूरे विश्व में घूमने के लिए नहीं भेजना पड़ता या विजयनगर साम्राज्य को दक्षिण पूर्व पें ब्राह्मणों को बस भोजन के लिए नहीं भेजना पड़ता था।

तीसरीहमने कभी उपनिवेश नही बनाए । हमने हमेशा बनाए । अफगानिस्तान ईरान हमेशा हमारे आर्थिक – प्रभाव क्षेत्र में रहा इसलिए आप इतिहास को देखें तो पाएंगे कि हमारे यहाँ आक्रमण इन क्षेत्रो के बाहर से हुए। ये क्षेत्र हमेशा हमारे सीधी अधिकार में नहीं रहे पर हमारे सामरिक और आर्थिक प्रभाव क्षेत्र में हमेशा रहे । हाँ ये जरूर रहा कि हमने कभी दास व्यापार जैसी अमानवीय व्यवहार नहीं किया। हमने कभी झ्न प्रभाव क्षेत्र में धर्म या रंग के आधार नर संहार नहीं किया ।

चौथीधर्म हमारी नीति का अंग नहीं रहा । धर्म हमारी संस्कृति के हर पहलू , हर कण में व्याप्त रहा। धर्म की जो धारणा हमने पश्चिम से आयातित की है वह धारणा कभी नहीं रही। पश्चिम से आयाति जो धारणा है वह पंथ की धारणा जिसका आशय होता है पूजा पद्धति। हमारी राजनीति . समाजनीति , व्यक्ति नीति परिवार नीति सभी कुछ धर्म से ही रित होती रही और धर्म वह है जो पूरे विश्व के लिए वैश्विक न्याय का श्रोत है। इसी कारण जब धर्म निरपेक्ष नीतियों का प्रतिपादन किया जाने लगा तो उसमें धर्म तत्व नष्ट होने लगा और आज हम उनके परिणाम देखते हैं विदेश नीति के परिपेक्ष में – भारत के अच्छे और विश्वस्नीय सम्बन्ध अपने पड़ोसियों से भी नहीं हैं। आज धर्म निरपेक्ष विदेश नीति की वजह से नेपाल से भी हमारे संबन्ध बिगड़े हुए हैं क्योंकि धर्म को हटाकर जो नीति बनी है उसमें लोगो के बीच जो सांस्कृतिक एकता है उसको पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया है। हमने अपनी नीतियों में इस बात का संज्ञान नहीं लिया कि अयोध्या से लेकर जनकपुर तक लोग उस राम और सीता के वंशज हैं जिसने इस घरती को पावन किया था। वही राम जो काठमाण्डू के पशुपतिनाथ के भक्त थे। ये नीतियों की अजीब विडम्बना है कि हमारे लोग जनकपुरधाम की परिक्रमा करते हैं पैदल चलकर और हमारी सरकारें एक दूसरे को आँख दिखाती हैं l

पाँचवी . दया करने से शत्रु मित्र बन जाएगा । कभी नहीं । पाकिस्तान पर दया की गई- एक बार नहीं कई बार। 65 में लाहोर तक सेनाएँ चली गई थी फिर वापस हो गए। मित्रता हुई ? नहीं ! फिर 7। हो गया। 90 हजार सैनिकों को छोड़ दिया और शिमला चले गए – दोस्ती हुई ? नहीं ! फिर आतंकवाद हो गया, फिर कारगिल हो गया । पृथीराज ने गोरी को माफ किया, एक बार नहीं सोलह बार – फिर क्या हुआ? शत्रु शत्रू ही रहता है। दया पात्र को देखकर करना चाहिए – अपात्र दया को आपकी कमजोरी समक्ष लेता है।

छठीशान्ति समझौतो से देश में शान्ति आ जाएगी । कभी नहीं । पंचशील हस्ताक्षर के पाँच साल बाद ही चीन ने आक्रमण कर दिया और एक बड़ा हिस्सा हथिया लिया जो आजतक वापस नहीं आया। पाकिस्तान के साथ आप शान्ति – शान्ति कर रहे थे और पाकिस्तान आप पर हमले की तैयारी कर रहा था और फिर आपको कारगिल से उसे भगाना पड़ा। पैसठ युद्ध के बाद हमने पाकिस्तान को जीते हुए भूभाग लौटा दिया , पर उस से क्या इकहतर रुका या कारगिल युद्ध रूका ? शान्ति की स्थापना शक्ति से होती है और शक्ति की स्थापना आत्म शक्ति से होती है। शान्ति की सबसे पहली और सबसे बड़ी शर्त है – शक्ति , और शकि आती है आत्म शक्ति से । देश में जितना जरूरी है सामरिक शक्ति का विकास उतना ही महत्वपूर्ण है देश की जनता में अपनी सभ्यता और संस्कृति के लिए गौरव और अभिमान का भाव ।

सातवी – हर देश को अपने विदेश नीति की स्वतंत्रता है और वह किसी के साथ भी दोस्ती करे या ना करे यह उसकी मर्ज है। नहीं ! ऐसा नहीं है। अगर क्यूबा ने रूस से समझौता किया था तो अमरीका ने ये सुनिस्चित किया है कि क्यूबा की स्थिति हमेशा कमजोर रहें। आज यूक्रेन ने नाटो के साथ सांठ – गांठ करने की कोशिशों की तो रूस ने उसे ऐसा करने नहीं दिया और उक्रेन को नस्तनाबूद करने पर अमादा है। सदियों से अफ्रगानिस्तान सभ्यताओं की सीमांत प्रदेश बना रहा और इसी वजह से बहुत त्रासदी झेली । मतलब हर देश की एक स्थिति होती है तीन आयामों में – सैन्य, आर्थिक और भौगोलिक । उस देश की विदेश नीति की स्वतंत्रता उतनी ही होती है जितनी उसे इन तीनो आयामों को देखकर मिलनी चाहिए। उदाहरणार्य उक्रेन एक सीमान्त राज्य है अमरीका अर्थात नाटो और रूस के बीच में । सो अपनी विदेश नीत्ति निर्धारित करते समय उक्रेन के इस बात का ख्याल रखना चाहिए। उक्रेन के नाटो में शामिल होने से रूस और अमरीका एकदम आमने सामने आ जाएंगे – ऐसा होना पूरे विश्व के लिए ठीक नहीं है। भारत क्षेत्रफल में और जनसंख्या के मामले में एक बड़ी शक्ति है , सो उसके वैश्विक व्यवहार और आचार में वही परिलक्षित होना जरूरी है। अभी तक भारत की विदेश नीति में वह नहीं दिखता है। आज भी भारत की विदेश नीति एक उपनिवेश की विदेश नीति समान संचालित होती है। भारत को अपनी विदेश नीति अपने सामरिक स्थिति के अनुरूप बनाना चाहिए।

तो अब बात करते हैं कि सनातन विदेश नीति कैसा होना चाहिए और उसकी क्या मुख्य क्या अवधारणा होनी चाहिए? म

१. सनातन धर्म के अनुरूप राष्ट्रीय सुरक्षा नीति – इस सुरक्षा नीति की प्रमुख अंग हैं

देश के शत्रुओं का समूल विनाश । वो शत्रू जो आज प्रत्यक्ष या परोक्ष हैं और वे शत्रू जो भविष्य में आने वाले हैं। आज अगर पाकिस्तान और चीन प्रत्यक्ष शत्रू हैं उनको समूल विनाश करना धर्म प्रदत्त विदेश और रक्षा नीति का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए । इस समूल विनाश का अर्थ कतई नहीं लगाना चाहिए कि मैं ये कह रहा है हूँ कि भारत को .तुरन्त युद्ध शुरु कर देना चाहिए या उन पर एटम बम गिरा देना चाहिए। पर आज के सन्दर्भ में उसका अर्थ यह है कि भारत को अपने इन दोनों प्रत्यक्ष शत्रुओं से हमेशा युद्ध को तैयार रहना चाहिए और किसी भी समय अगर ऐसी नौबत आए तो युद्ध से पीछे नहीं हटना चाहिए। उदाहरणार्थ जब हमने पंचशील के बाद अपनी रक्षा बजट में कटौती की थी तो वह राजधर्म के एकदम विपरीत था। आज के सन्दर्भ में अगर देखें तो मुम्बई आतंकवादी हमले के समय हमने धर्मानुकूल आचरण नही किया और उसी का नतीजा था कि फिर पुलवामा हुआ। पुलवामा के बाद हमने जो किया वह धर्म सम्मत था और उसके बाद अब तक कोई ऐस घटना नही हुई है। आज ही के संदर्भ में हमें ये भी देखना है कि हमारे देश की सुरक्षा को नई -नई चुनौतियाँ कहाँ से आ रही हैं। दुशमन नई – नई तकनीकी के अस्त्र और शस्र ला रहा है। हमारे पास दुनियों में सबसे ज्यादा तकनीकि शक्ति है।हमें पूरी क्षमता से उनका उपयोग करना चाहिए और बेहतरीन शस्त्रों से साज सुसज्जित सेना रखनी चाहिए I सोशल मीडिया और साइबर सुरक्षा नए खतरे हैं और उनके लिए हमें आक्रामक और सुरसात्मक दोनो तैयारी जोरशोर से करनी चाहिए l हमें आज के उन्नत हथियार तो चाहिए ही पर हमें कल और आने वालो ।00 वर्षों के हथियार पर आज से काम शुरू करना चाहिए।

२. विदेश नीति का दूसरा आयाम है आर्थिक सुरक्षा और समृद्धि वृद्धि । आज के वैश्विक परिवेश में पूरी दुनिया एक आपस मे गुथा हुआ बाजर हैं । हर देश के तार दसरे देश से बहुआयामी ढंग से उलझे हुए है और ये अत्यन्त आवश्यक है कि इन तारो का अन्वेषण – विष्लेषण हो और अपने विकास के लिए उपयोग किया जा सके । वैश्विक परिदृश्य में अन्तराष्टीय संगठनो की भूमिका महत्वपूर्ण होती जा रही है और दिन प्रति दिन बढ़ती जाएगी । ऐसे में अगर हम इन संगठनो को अपने लाभ के लिए और प्रभावी नही बना पाए तो धीरे धीरे या तो हम वैश्विक परिवेष से अलग थलग पड़ जाएंगे या फिर कोई और इसका लाभ लेगा । G20 में हमारी भागीदार और इसमें नेतृत्व महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं जिसको हमें पूरी तरह उपयोग करन चाहिए । हमें याद रखना चाहिए कि WTO जैसी संगठनों मे हमें पिछले दशकों में मुश्किलें उठानी पड़ी थी और उनकी वजह से हमें आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा था। आज वैश्विक वातावरण परिवर्तन पर विकसित देश एक बड़े जमींदार की तरह नजर आ रहे हैं और पूरे विश्व को अपने शर्त मनवाने पर मजबूर करने पर आमादा है। इन शर्तों से हमारी अर्थ व्यवस्था पर दूरगामी और प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। हमें इन सब का सख्ती और कूटनीति से विरोध करना चाहिए। ।

3. सांस्कृतिक सुरक्षा और सांस्कृतिक विकास । सांस्कृतिक सुरक्षा एक महत्वपूर्ण आयाम है जो बहुधा राजनैयिकों को समझ नहीं आता है और वे इस बात को स्वीकार नहीं करते कि यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण कड़ी है किसी भी विदेश नीति के लिए। मेरे बाली प्रवास के दौरान इस बात का एहसास हुआ कि हमारे देश के राजनेता और साजनैयिक कितने अनभिज्ञ रहे इस बात से कि सांस्कृतिक कूटनीति किसी भी कूटनीति का एक महत्वपूर्ण अंग है । आपकी संस्कृति आपके भौगोलिक विस्तार से और आपके राजनीतिक सीमा से कहीं अधिक व्यापक होती है और इसका प्रभाव सिर्फ सरकारों और संगठनो तक ही नहीं रहता है परन्तु इसका प्रभाव पूरी जनमानस पर होता है । सांस्कृतिक सुरक्षा किसी देश की सभ्यता की सुरक्षा से जुड़ी होती है। अगर किस देश को दस साल तक गुलाम बनाना हो तो उसे आप सैन्य शक्ति से हासिल कर सकते हैं लेकिन अगर आप किसी देश को सदियों और नस्लों तक को गुलाम बनाना हो तो उसे सांस्कृतिक तौर पर प्रभावित करना पडेगा । अंग्रेजों ने भारत में शुरुआती विजय के बाद सबसे पहले जो काम शुरू किया वह था वह था यहाँ की संस्कृति को प्रभावित करना और उसको गुलाम बनाना । आज सत्तर सालों बाद भी हम उस गुलामी को हर दिन महसूस कर सकते हैं । स्थिति ऐसी है कि इन गुलामो को अगर दिखाया भी जाता है इस गुलामी के प्रभाव तो वह कोई स्वीकार भी नहीं करते हैं। आठ सौ सालों तक इस्लाम इस देश के एक बडे भूभाग पर प्रभावी रहा पर उसने हिन्दू जनमानस पर ऐसा प्रभाव नहीं डाला जितना अंग्रेजों ने बस सौ सालो में कर दिया और किया भी ऐसा कि उनके जाने के बाद भी हमने जिसे अपना नेता चुना वह उन्ही का वकील था।

हम बात कर रहे हैं भारतीय विदेश नीति की और हमारे सांस्कृतिक सुरक्षा की । बाली जाकर मुझ आश्चर्य हुगा कि भारत में हम जैसे तथाकथित पढ़े लिखे लोगों को यह पता भी नही था कि सुदूर पूर्व में एक द्वीप है जहां हर सड़क हर गली सनातन संस्कृति से सराबोर है । वह इस्लामि देश है पर अपने आपको गर्व से सनातन संस्कृति से सराबोर रखे हुए है। मुझे इस बात पर अत्यधिक आश्चर्य होता है कि स्वतंत्रता के बाद जब हमने अपनी इन्डोनेशिया की नीति बनाई तो उसमें धर्म निर्पेक्षता की बात कही ना कि सनातन संस्कृति की। जहाँ का हर व्यक्ति सनातन धर्म से जुडा हुआ है वहाँ धर्मनिरपेक्षता की बात हमने क्यों की इसका जबाब तो बस वही दे सकते हैं जिन्होने ऐसा किया पर ये तो तय है कि इससे ज्यादा विसंगति और कहीं कि विदेश नीति में नहीं दिखेगी। इसी नीति की वजह से आज हमारे देश का सधारण व्यक्ति अपने आप को यूरोप और अमेरिका से ज़्यादा जुडा महसूस करता है ना कि अपने आस पड़ोस से जैसे कि थाईलैंड, इन्डोनेसिया , मलेशिया, कम्बोडिया इत्यादि ।

सनातन संस्कृति हमारी सुरक्षा कवच भी है और हमारा हथियार भी जिसे हमने पिछले सत्तर सालों से अन्देखा कर रखा है।

दक्षिण एशिया में हमारी विदेश नीति का विशलेषण

अगर हम दक्षिण एशिया को देखें तो हम देखते हैं कि इसी इलाके में हमारे सारे शत्रू भरे हैं और इसी इलाके में हर कण में सनातन इतिहास कूट कूट कर भरी हुई है । सनातन भावना पंथ और प्रजाति से ऊपर है । हिन्दुकुश से लेकर म्यांमार मलेशिया , थाईलैन्ड, वियतनाम , इन्डोनेशिया जावा सुमात्रा तक सनातन का फैलाव है। उसके आगे पूरी चीन , ताईवान , जापान में सनातन संस्कृति ही उनका सांस्कृतिक आधार है। उत्तर में तिब्बत से लेकर दक्षिण में श्रीलंका मालदीव और छोटे दीपों में सनातन संस्कृति ही मूल सांस्कृतिक आधार है। तो हमने अपनी विदेश नीति में सनातन सभ्यता और संस्कृतं को आगे क्यों नहीं बढ़ाया ? कुछ सवाल खड़े होते हैं। और इन्ही सवालों के जरिए मैं अपनी आगे की बात रखूंगा । इन सवालों के जरिए मै यह भी कहना चाहूंगा कि हमारी दक्षिण एशिया संबन्धित विदेश नीति को सनातन विचार कैसे कारगर बना सकता है ।

1 बाली के सनातनी और भारत के सनातनी के बीच सीधी बातचीत नहीं होनी चाहिए क्या ? क्या ऐसा नहीं होना चाहिए कि बाली के सनातनी पूरे इलाके के सनातनियों से आपस मे अपने पूर्वजों के बारे में, अपने विश्वासों, त्योहारो, अपने रीति रिवाजों के बारे में आपस में बात कर सके ? अगर इन सवालों का जवाब हाँ में है तो क्या हमारी सरकारों ने इस दिशा में शिद्दत से क्यों काम नही किया है?

2. क्या भारत को इस पूरे इलाके में सनातन विचारधारा वाले लोगों की अगुआई नहीं करनी चाहिए? पूरे दक्षिण एशिया में पिछले सौ सालों से जिस तरह सनातन विचारधारा या उससे निकली विचारधाराओं को मानने वाले समाज का क्रमिक विघटन और विभाजन होता रहा है अगर वही चलता रहा तो यह कुछ शताब्दियों में पूरी तरह खत्म हो जाएगा। अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में जब अंग्रेज भारत आए तो पेशावर से रंगून तक और लेह लदाख से कन्याकुमारी और अंडमान तक भारतीय सभ्यता को एक निरंतरता की तरह देखा जाता था। सामाजिक तौर पर ये सनातन संस्कृति के ही विभिन्न अंग हैं। अंग्रेजों ने आने के बाद सबसे पहले जो काम किया वह था इस सनातन संस्कृति में दरारें डालना । उन्होंने सबसे पहले हमारी शिक्षा व्यवस्था को खत्म कर दिया, फिर उन्होंने हमारे धर्म ग्रंथों को अपनी तरह से विघटित और भ्रामक अनुवाद किया और फिर हमें ही वही विघटित और और भ्रष्ट इतिहास और ग्रंथ हमें पढाना शुरू कर दिया। उन्होने पचास सालों में एक ऐसे की को जन्म दिया जिसने हमारे ग्रंथ अंग्रेजों के दिमाग से पढ़ा और फिर उन्ही ग्रंथों की बुराई में लग गए। आज भी उस तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ने समाज में बड़ी तबाही मचा रखी है । अंग्रेजों ने हमारे ही धर्म ग्रंथों में विकृति पैदा की हमें ही विकृत ग्रंथ पढ़ए और फिर हमारे ही विकृत मानसिकता का उपयोग कर हमारे राष्ट्र और हमारे समाज में विभाजन पैदा कर दिया। इस विकृति का एक बड़ असर यह हुआ है कि उत्तरपूर्व और सुदूर पूर्व के बारे में हमारा वैश्विक नजरिया ही बदल गया। हमने बचपन से उतर पूर्व और सुदूर पूर्व को अपना माना ही नहीं नहीं। आज के बच्चे नेपाल को भी विदेश और विदेशी संस्कृति से जोड़ते हैं।

हमारे देश में कितने लोग हैं जो ये जानते हैं कि एशिया में एक देश है जहां के मुद्रा पर गणेश की फोटो छ्पी होती है – भारत नहीं पर इन्डोनेशिया है जो एक मुस्लिम बाहुल्य देश है। हमें यह पराया ही नहीं जाता है। थाईलैन्ड के राजघराने आज भी अपने आप को सम का वंशज मानते हैं। ये कैसी विडम्बना है कि राम के वंशज राम की भूमि में अपने आप को राम के वंशज कहने में शर्माते हैं । राम के भारतीय वंशज को अपने भाई भ्राता बन्धुओं की कोई खबर ही नही है। कोरिया के राज परिवार के लोग आज भी अयोध्या से अपने संबन्ध के मानता है।

जिसदिन सनातन भ्रातृत्व की बात पूरे दक्षिण एशिया में फैल जाए , उसी दिन पूरे दक्षिण एशिया में सनातन नीति स्थापित हो जाएगा।

3 क्या भारत को पूरे इलाके के सनातन लोगो की रहनुमाई नही करनी चाहिए ? तो ऐसा क्यों नहीं होता है कि हम पूरे दक्षिण एशिया के लोगों के बीच एक सनातन भ्रातृत्व के लिए संस्थाएँ बनाएं ?

4 ऐसा क्यों है कि बाली जो एक इस्लाम देश का अंग है वहों हर कोने में और हर कण से सनातन की आवाज आती है पर भारत जो सनातन संस्कृति की धूरी है वहाँ सनातन धर्म को सामाजिक तौर पर शर्म आती रहे। हमारी पर्यटन नीति में हम सनातन संस्कृति के प्रचार के लिए क्यों नहीं प्रयास करते हैं? पूरी दक्षिण एशिया का धार्मिक घूरी भारत भूमि में है। इस इलाक में डेढ बिलियन हिन्दू और लगभग डेढ़ बिलियन बौद्ध हैं और दोनों का उद्ग्म इस भारत भूमि में हैं। अगर हमने तीन बिलियन लोगों की धार्मिक स्थलों के आधार पर अपनी पर्यटन नीति बनाई तो पूरा दक्षिण एशिया भारत की ओर तीर्थ के लिए आने को आतुर हो जाएगा।

5 . क्या अगर भारत और थाईलैंड ने तथागत के जीवन पर हजारों रिसर्च प्रोजेक्ट साथ में चलाए तो भारत और थाईलैंड के सबधो मे कभी भी कोई दरार नहीं आ सकती? थाईलैंड की जनता वहां की सरकार को वहाँ की धरती भारत के विरुद इस्तेमाल नही करने देगी ? क्या इससे भारत की सुरक्षा ज्यादा शसक्त नहीं हो जाएगी ?

6 . अगर भारत इस इलाके मे बौद्धों का अगुवाई करे तो चीन की जनता से उसका सीधा संबन्ध नही बन जाएगा और ऐसे में क्या चीन भारत विरोधी नीति पर बहुत दिनों त कायम रह सकता है? क्या सनातन संस्कृति को लेकर हम चीन की जनता में धर्म की अलख नहीं जगा सकते हैं और जिससे चीन की सरकार , जो नास्तिक सरकार है अपने जनता के विरोध से परेशान हो जाएगी?

7 हमारे संबन्ध नेपाल से सनातन संस्कृति के आधार पर बने हैं. इसलिए हमें नेपाल में उसी संस्कृति को बढावा देना चाहिए और वहाँ वी वामपंथी सजती को खत्म करने का प्रयास करना चाहिए । क्या मे हमारी विदेश नीति की विफलता का प्रमाण नहीं है कि चीन की वर्चस्व नेपाल में बढ़ रहा है? क्या हम यह बर्दाश्त कर पाएंगे कि वो धरती जहाँ हमारे देवता निवास करते है वहां की सरकार नास्तिक हो जाए और हमारे मंदिरों को म्यूजियम बना दिया जाए?

8 म्यांमार, श्रीलंका, कम्बोडिया, वियतनाम इन सारे देशों में सनातन संस्कृति का बोलबाला है । इस देशों से हमें सनातन संस्कृति पर और साझा संस्कृतिक धरोहर पर संधियाँ करनी चाहिए और जनता से -जनता के संबन्ध बढाने चाहिए।

9 क्या हमें पाकिस्तान और बन्गलादेश की जनता में अपने ऐतिहासिक घरोहर के प्रति स्वाभिमान की अलख जगाने के लिए कार्य नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से वहाँ के लोग इस जम्बूद्वीप की पुरातन धरोहर के प्रति सजग और स्वामिमान महसूस करेंगे, आतकवाद खत्म होगा और हमारे संबन्ध सुधरेंगे ।

तो भारत को क्या करना चाहिए?

  1. भारत में विश्व स्तरीय बौद्ध रिसर्च सेन्टर स्थापित करना चाहिए । नालन्दा विश्वविद्यालय में उसको पुराने गौरव के साथ विकसित करना चाहिए और पूरे दक्षिण एशिया के विश्व विद्यालय को अनुदान और प्रोत्साहन देना चाहिए।
  2. भारत में कम से कम चार विश्वस्तर के धर्म शोध संस्थान खुलने चाहिए जिसमें सनातन परम्परा जैसे जैनमत, सिख मत इत्यादि पर शोध हो। चार इसलिए क्योंकि इनको चार कोनो में होना चाहिए
  3. सनातन सम्भता के अरबी और यूरोपीय सभ्यता से संबन्धो पर रिसर्च होना चाहिए और पूरे हिन्द महासागर क्षेत्र की इतिहास और सा एकता की बिना पर संबधों स्थापित करना चाहिए।

अगर भारत ने स्वतन्त्रता पश्चात ही ऐसा किया होता तो आज भारत विश्व गुरु हो चुका होता ।

1 COMMENT

  1. बहुत ज्ञानबर्धक और प्रेरणादायी लेख है।अरविन्द के शब्दों में सनातन ही राष्ट्र है।हमारे देश की स्व और पर नीति इसके आधार पर होनी चाहिए।लेकिन इसकी सुध भारत के सुधीजनों को जो north और south blok की शोभा बढ़ाते है नही है।इस परिदृश्य में आपका लेख पथ प्रदर्शक है।

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