हम इतिहास की वजह से क्यों बंट जाते हैं

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मैं अक्सर सोचता हूँ की हमारे देश में इतिहास पर विचार और विवेचना क्यों नहीं होती है जिस तरह पश्चिमी देशों में होती है | अच्छा, बुरा, सही, गलत सब पर विचार और व्याख्यान इतिहास विज्ञानं का विषय है | हमारे देश में क्यों नहीं ? जिस देश का इतिहास इतना अतीत, विशाल और विविध हो उस देश में इतिहास से ये उदासीनता ?

Taj Mahar, photo from internet

इतिहास ऑस्ट्रेलिया का

मैं ब्रिस्बेन ऑस्ट्रेलिया में रहता हूँ और एक वाकया इस सन्दर्भ में उपयुक्त है सो बताता हूँ | मेरा बेटा दूसरी कक्षा में था और उस के स्कूल से स्टडी टूर के लिए ब्रिस्बेन से 25 किलोमीटर दूर एक 150 साल पुराने फार्म हाउस में ले जाने का कार्यक्रम बना | क्योंकि लगभग 40 बच्चे थे और सिर्फ 2 शिक्षक ( दो कक्षाओं से), अभिभावकों से अनुरोध किया गया साथ चलने को अगर समय हो तो | मैं उस वक्त घर से ही काम करता था और मेरे पास समय भी था और मैंने सोचा ये अच्छा मौका था स्कूल से जुड़ने का | सो मैंने हाँ कर दी और लगभग 40 बच्चों और 2 शिक्षकों के साथ फार्म हाउस पहुँच गया | पूरा अनुभव मेरे लिए शिक्षाप्रद था, बच्चे तो बाद में कुछ सिखते |


गवर्नर इंग्लैंड की रानी का शाशन चलाता था और बहुत सारे अपराधी यहाँ दासों की तरह रहते थे और इस फार्म में काम करते थे |

पूरा दिन उन बच्चों ले लिए इतिहास का क्लास था | सब से पहले उस फार्म हाउस के अहाते में घास पर बैठ कर क्लास हुई और उनको उस फार्म हाउस के बारे में बताया गया | वह फार्म हाउस 1850 के गवर्नर का घर था | बच्चों को गवर्नर का मतलब बताया गया और फिर ये बताया गया की उस वक्त लोग कैसे रहते थे, क्या कहते थे, कैसे सोते थे, नौकर लोग कहाँ और कैसे रहते थे, इत्यादि | ये भी बताया गया की उस वक्त जब ऑस्ट्रेलिया एक अपराधी कॉलोनी था और इनके पूर्वज सजायाफ्ता अपराधी जिन्हे इंग्लैंड से देश निकला दे दिया गया था और इस कॉलोनी में भेज दिया गया गया था | गवर्नर इंग्लैंड की रानी का शाशन चलाता था और बहुत सारे अपराधी यहाँ दासों की तरह रहते थे और इस फार्म में काम करते थे | उनको ये भी बताया गया आदिवासी लोग मुख्या समाज का अंग नहीं थे और उनको शहर में रहने की इजाजत नहीं थी | पूरी क्लास ये सुनती रही और पूछ लिया, ” मिस, क्या ये सच कि लोगों ने एबोरिजिनल ( आदिवासी) लोगों को मार दिया”? इस बात पर टीचर ने बहुत सहजता से कहा, ” दुर्भाग्य से हाँ ” | इस क्लास के बाद खाने का समय हो गया और सब बच्चों ने अपने – अपने टिफिन से खाना खाया | खाने के बाद सारे बच्चों को 5 ग्रुप में बाँट दिया गया और हर ग्रुप को एक रोल करना था और इस तरह हर बच्चा हर रोल एक बार करता | एक ग्रुप संभ्रांत वर्ग – गवर्नर और उस के परिवार – का रोल कर रहा था और उसी दौरान एक ग्रुप नौकरों का रोल कर रहा था, एक ग्रुप किचेन का काम कर रहा था इत्यादि | ये देख कर लगा की ये समाज जीतनी सहजता से अपने इतिहास के हर पहलु को स्वीकारता है उतनी ही सहजता से आज समाज के हर वर्ग को बराबर मानकर चलता है | इतिहास पीछे है और इनकी दृष्टि आगे |

अपने इतिहास के लिए भारतीय कुंठा

मैं कई दिनों तक सोचता रहा की हम भारतीय अपने इतिहास को लेकर इतने मनोग्रंथि से क्यों ग्रसित हैं? कई सवाल हैं ज़हन में अभी तक जिनके उत्तर शायद इतिहास के किसी दस्तावेज में दबे हैं जो हमें पढ़ाया नहीं जाता है | जैसे जब मुग़ल आये भारत तो क्या उन्होंने अत्याचार और मार काट नहीं किया ? जिन तुर्क और जिन चंगेज ने मध्य एशिया और पश्चिम एशिया में आतंक और अत्याचार की पराकाष्ठा कर दी पर भारत में वे अच्छे शाशक हो गए | मैं ेंने फिर एन.सी.ई.आर.टी की किताबों को खंगाला और छठी, सातवीं और आठवीं के इतिहास की किताबों को फिर पढ़ा। इन सब किताबों में कहीं आक्रमणकारियों के अत्याचार, या सामाजिक उत्पीड़न का ज़िक्र नहीं है। कहीं धर्म परिवर्तन, और उस के लिए अत्याचार का कोई ज़िक्र नहीं है। कहीं भी हमारे इतिहास में ये पढ़ाया ही नहीं जाता है की अलग मतों (हिन्दुओं के भी) के मानने वालों के बीच लड़ाइयां भी होती थी। फिर हिन्दू और मुसलमान के बीच भी ऐसा कुछ तो हुआ होगा जरूर। जो समाज सदियों से विविधता और विचारों में भिन्नता को बहुत सहजता स्वीकारता रहा वो आज उन्ही विविधता से घबराने कैसे लगा ? हम तो उस समाज के लोग हैं जो ये कहते हैं की ” एकं सत विप्रं बहुधा वदन्ति” | सामाजिक रूप से तो हमारी अर्जुन दृष्टि हमेशा उस एक सत्य पर टिकी होनी चाहिए और हम विभिन्नता हमारी शक्ति | पर आज हमारी दृष्टि बस विभिन्नता पर टिकी है और वो एक सत्य गौण हो गया है।

पर ऐसा क्यों। थोड़ा हाल के इतिहास में जाएँ तो शायद कुछ कारण स्पस्ट होते हैं। ब्रिटिश शाशन काल से ही हमारी भिन्नताएँ हमारे लिए शाशन से एहसान पाने का जरिया हो गया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर और बाद में अँगरेज़ी हुकूमत ने हमारी विभिन्नताओं को दो तरीके से इस्तेमाल किया। एक तो सामाजिक विभाजन कर सत्ता बरक़रार रखना और दूसरा सामाजिक विभाजन को आर्थिक संसाधनों के विभाजन का आधार बनाकर ब्रिटिश शाशन के हितैषी वर्ग का बनाना और उनका पोषण करना। ब्रिटिश सरकार ने धर्म और जाती के आधार पर उपाधियाँ और जमींदारियां और रैयतें बांटी। सरकार के सामने धर्म और जाति संसाधनों पर अधिकार और वर्चस्व का आधार हो गया। यही कारण था की ब्रिटिश शाशन के दौरान सारे अत्याचारों के आदेश अंगरेज़ों ने लिखे, पर उन का कार्यान्वन भारतीय सिपाहियो या भारतियों क्लर्कों या अफसरों ने बिना किसी शर्म या अपराध बोध के किया। जलियावाला बाग़ में गोलियां भारतीय सिपाहियों ने ही चलाई थी।

दुर्भाग्यवश आज़ादी के बाद भी हमने जाति और धर्म को अपने संविधान में विशेष अधिकारों का आधार बना दिया। सामाजिक न्याय के लिए हमने आरक्षण को एक जरिया बना लिया । अब जाति के लिए आरक्षण हो तो धर्म के नाम पर भी आरक्षण की बात होने लगी। जिन धर्म में जाति की अवधारणा नहीं है उनके लोगों ने भी पुराने इतिहास को खंगाला और ऐतिहासिक प्रतारणा की कहानी गढ़ी और सड़क पर उतर गए। पिछले 70 सालों में हमने इस प्रकार वर्ग के अंदर नए नए वर्ग बना दिए और हर वर्ग अपने विशेषादिकार की सुरक्षा के लिए अपने हिसाब से इतिहास गढ़ने लगा। इन सब में बेचारा इतिहास कहीं रोता बिलखता रह गया। जहाँ इतिहास लोगों के भविष्य का निर्धारण करेगा, वहां इतिहास सच्चाई से अलग और वर्गों की सुविधा को सहेजने के लिए लिखा जायेगा। आज़ादी की लड़ाई के दौरान गाँधी जी इतिहास से बचते रहे और बस इस लिए कि इस से हिन्दू मुस्लिम एकता में बाधा होगी पर हुआ कुछ नहीं। लोगों ने स्वार्थवश उसी इतिहास का इस्तेमाल कर देश का विभाजन कर दिया। हम फिर भी नहीं सुधरे और इतिहास का इस्तेमाल कर के संविधान में ही विभाजन का प्रावधान कर दिया। फिर क्या है, अब हम इतिहास जो पढ़ते हैं वो सहूलियतों वाला इतिहास है और इस पर कोई भी वाद विवाद या विवेचना समाज में विभाजन पैदा कर देता है। अब इस्लामिक शाशन के अत्याचारों की बात नहीं कर सकते क्योंकि तब मुसलामानों के एक वर्ग को आरक्षण मिलता है वो सवालों के घेरे में आ जायेगा। इस से उन लोगों को परेशानी हो जायेगी जो धर्म के आधार पर संसद और विधान सभाओं में सीट चाहते हैं। हम जब जाति प्रथा की बात करते हैं तो ये भी बात करते हैं कि हमारे समाज में परत दर परत अधिकार और विशेषाधिकार है और चार वर्णो पर आधारित आरक्षण की निति में सब कुछ सामान्य नहीं है। ऐसे सवाल से सब बचना चाहते हैं की दिल्ली के साउथ ब्लॉक के बड़े बंगले में रहने वाले सरकारी सचिव के बच्चे भी आरक्षण किस इतिहास के आधार पर लेते हैं।
यहाँ ऑस्ट्रेलिया में सभी बच्चों को एक साथ पूरी इतिहास सच के साथ पढाई जाती है और सच के आधार पर विवेचना की जाती है। यहाँ आने वाले यूरोपियन ने आदिवासिओं की पूरी की पूरी नस्ल को ख़तम कर दिया और अब जो बचे हैं वो समाज का अभिन्न अंग हैं और बराबर के अधिकार के साथ अपनी सामाजिक स्थिति सुधार करने में लगे हैं। सरकार की ओर से उनके लिए विशेष स्कूल हैं, विशेष आर्थिक सहयोग है पर कहीं आरक्षण नहीं है। एक यूरोपियन मूल का बच्चा और एक आदिवासी मूल का बच्चा दोनों एक ही इतिहास पढ़ता है और दोनों इस बात को स्वीकार करता है की कुछ ही पीढ़ी पहले एक के पूर्वजों ने दूसरे के पूर्वजों पर अत्याचार और बर्बरता की होगी पर दोनों इस बात से सहमत होते हैं की सरकार को उस वर्ग को अतिरिक्त सहयोग करना चाहिए – वैसे ही जैसे सरकार अकेली माताओं को अतितिक्त सहयोग करती है, वैसे ही जैसे सरकार गरीबों के बच्चों के लिए विशेष कार्क्रम चलती है। यहाँ सामाजिक परिवर्तन का आधार आर्थिक है और न की ऐतिहासिक।
आप अपने देश में ही देखिये कई निजी या पब्लिक कंपनियों ने दिव्यांग लोगों के लिए नौकरियां देने की निति बनायीं है जहाँ ये उन लोगों को विशेष तौर पर नौकरी देते हैं और उनको अलग से ट्रेनिंग देकर बाकी लोगों के बराबर लाते हैं। यहाँ आरक्षण का स्थायीकरण नहीं है, उन लोगों के बच्चों को वो सुविधा नहीं मिलेगी अगर वो दिव्यांग नहीं होंगे। ऐसी नीति में कोई विवाद नहीं है और हर वर्ग के लोग इस का समर्थन करते हैं। अगर यही किसी जाति या धर्म से जुड़ जाए तो कंपनी के कर्मचारियों में विभाजन हो जाए। अगर समाज में विशेषाधिकार ऐतिहासिक घटनाओं के प्रतिकार के रूप में बांटा जाएगा तो इतिहास भविष्य के विभाजन का कारण बनेगा न की राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीयता का श्रोत।

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