कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में “न्याय” पर जोर दिया है, जिसमें आर्थिक न्याय को प्राथमिकता दी गई है और भारत में आर्थिक विषमताओं को दूर करने के लिए कदम उठाने की बात कही गई है। यह लेख घोषणापत्र के प्रमुख प्रस्तावों की आलोचनात्मक जांच करता है, विशेष रूप से विधायी तरीकों से धन वितरण की योजना, और पारंपरिक भारतीय सामाजिक-आर्थिक दर्शन के साथ उसकी विसंगतियों की विवेचना करता है।

कांग्रेस पार्टी का आर्थिक न्याय एजेंडा

कांग्रेस पार्टी का घोषणापत्र आर्थिक न्याय पर केंद्रित है, जिसमें न्याय की पहली सीढी जाति और उप-जातियों की जानकारी के लिए एक राष्ट्रीय जाति जनगणना, अल्पसंख्यकों का आर्थिक सशक्तिकरण और धन असमानता को संबोधित करने के लिए नीति परिवर्तन जैसी पहल शामिल हैं। जबकि इस समय चुनावों का मौसम अपने आप में भावनात्मक रूप बहुत संवेदनशील है जाति जनगणना और संपत्ति उत्तराधिकार कर जैसे विवादास्पद प्रस्तावों ने इस समय माहौल को और सुलगाने का कार्य किया है।

ऐतिहासिक संदर्भ और व्यावहारिकता

विधायी तरीकों से धन वितरण के प्रस्ताव को इसकी व्यावहारिकता और ऐतिहासिक प्रभावशीलता के लिए आलोचना का सामना करना पड़ता है । ऐतिहासिक रूप से, किसी भी देश में केवल विधायी तरीकों से धन वितरण के प्रयास बहुत सफल नही हुए हैं। ऐसे प्रयासों ने बहुतेरे समाज में गरीबी और सत्ता के केन्द्रीकरण से उत्पन्न विषमता को बढ़ावा दिया है। सोवियत संघ में पार्टी के अफसरों के ब्लैक समुद्र तटीय महलों की कहानियाँ खूब प्रचलित हैं। चीन में जिले के पार्टी कार्य करता द्वारा भ्रष्टाचार या भारत मे लायसंस राज – सब इन्ही के ज्वलन्त उदाहरण हैं। पश्चिमी समाजवाद का मॉडल भारत में बिल्कुल भी प्रभावी नहीं रहा है। भारतीय सामाजिक और आर्थिक ढांचा “धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष” के सनातन स्तंभों में गहराई से निहित है, जो अधिकार-आधारित पश्चिमी विचारधाराओं से भिन्न कर्तव्य प्रधान हैं। गांधीजी ने “ट्रस्टीशिप” के सिद्धांत पर जोर दिया, यह सुझाव देते हुए कि धन सृजन करने वालों को अपनी संपत्ति का जिम्मेदारी से प्रबंधन करना चाहिए और इसे आम भलाई के लिए अपना कर्तव्य समझकर साझा करना चाहिए।

सनातन समाजवाद की अवधारणा

सनातन धर्म धन सृजन और वितरण के लिए एक कर्तव्य-आधारित दृष्टिकोण को समाज के अस्तित्व का आधार  मानता है।सनातन धर्म चार स्तंभों (जीवन के सिद्धांतों) पर आधारित है जिन्हें जीवन के चार प्रमुख कर्तव्यों के रूप में भी माना जाता है: धर्म (धार्मिकता), अर्थ (धन), काम (इच्छा), और मोक्ष (मुक्ति)। धन सृजन को प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य माना गया है। मानव योनि में जन्म के बदले हर व्यक्ति तीन ऋणों (ऋण) के साथ पैदा होता है – देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण। इन ऋणों को अपने जीवन काल में चुकाना हर मनुष्य का कर्तव्य है। देव ऋण देवताओ के प्रति होता है और देवता वो नियामक शक्तियां है जो बिना किसी अपेक्षा के बस देती हैं। प्रकृति के संसाधनों जैसे वायु, जल, सूर्य , वृक्ष आदि देवता हैं क्योंकि ये सिर्फ देते है। देव ऋण को चुकाने के लिए व्यक्ति को बिना किसी अपेक्षा के दान (दान) करना कहा जाता है। मंदिरों में दान करने की अवधारणा और मंदिरों द्वारा समाज कल्याण के कार्यो का संपादन करने की व्यवस्था इसी सामाजिक व्यवस्था का अंग है। दुर्भाग्यवश कांग्रेस ने ही स्वतंत्रता के बाद गांधीजी की इस विचार को ताख पर रख दिया और .इस व्यवस्था को नष्ट भ्रष्ट कर दिया।

जैन दर्शन के सिद्धांत भी इन अवधारणाओं के साथ बड़ी निकटता से मेल खाते हैं। अहिंसा (अहिंसा), सत्य (सत्य), अस्तेय (चोरी न करना), और अपरिग्रह (अधिकार न होना) के प्रमुख सिद्धांत नैतिक धन प्रबंधन और आवश्यकता-आधारित धन संचय और वितरण पर जोर देते हैं। जैन दर्शनशास्त्र अधिकतम धन सृजन और न्यूनतम धन उपभोग की प्रेरणा देती है। यही कारण है कि जैन  समाज देश में सर्वाधिक धन वैभव के साथ साथ सर्वाधिक सामाजिक कार्यो में अग्रणी रहते हैं।

कांग्रेस को अपने संस्थापकों की शिक्षाओं और सनातन जड़ों की ओर लौटना चाहिए, और वे राष्ट्र की संपत्ति के समानुपातिक स्वामित्व के लिए एक आदर्श उत्तर प्राप्त करेंगे।

                                                    -मोद प्रकाश

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