आजकल राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष के रूप में एक अलग ही तेवर में नज़र आ रहे हैं। उनके समर्थकों का ये मानना है कि जो मेहनत उन्होंने पिछले एक साल से अपनी छवि सुधारने में की है उसकी सही परिणति अब दिख रही है। उनके समर्थकों और पार्टी के सहयोगियों को ये काफ़ी पसंद आ रहा है और इसकी खूब सराहना हो रही है।
सवाल ये है कि क्या राहुल गांधी वाक़ई में एक परिपक्व और मझे हुए राजनीतिज्ञ बन गये हैं। क्या उनसे देश को किसी वैचारिक दृष्टि और सामाजिक और राजनीतिक रणनीति की अपेक्षा हो सकती है ?
धरती पर अगर स्वर्ग की स्थापना की कोई परिकल्पना की जाये तो वहाँ ईश्वर को ख़ुद शासक बनना पड़ेगा। क्योंकि ईश्वर ख़ुद शासक की भूमिका में नहीं फँस सकता है तो उसने हमे धर्म दिया और शासकों को उसकी परिधि में बांधा। धर्म की निरंतरता और उपयोगिता को सुनिश्चित करने लिए उसे ज्ञानियों के ज्ञान के अधीन कर दिया। इस प्रकार समाज में धर्म शासकों और शाशितों के व्यवहार और कर्तव्यों की नियमावली बनी रही। धर्म के ज्ञानियों को विवेचकों को शाशन से अलग रखा और शासक को धर्म की परिधि में बांध दिया।
आज के परिप्रेक्ष्य में संविधान हमारा धर्म है, लोकतंत्र विधान और संसद और जानता इस विधान के नियामक, रक्षक और पालक। राजनीतिक दल इसी प्रक्रिया के शीर्ष पर हैं जो सामाजिक विषयों को व्यापक विमर्श के पश्चात क़ानूनी वस्र ओढ़ाते हैं और धर्म की निरंतरता को सुनिश्चित करते हैं। राजनीतिक दल संविधान के ज्ञानी भी हैं रक्षक भी और उस संविधान के पालक भी।
वापस आते हैं राहुल गांधी पर। नेता प्रतिपक्ष के रूप में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती हैं। ये उनकी जिम्मेदारी है कि वो ये सुनिश्चित करें कि की देश का शासक संविधान की परिधि में बंधा है और साथ ही संविधान भी समाज की परिवर्तन शीतला को आत्मसात् कर सामाजिक निरंतरता को सुनिश्चित करे। अगर हम देखें तो आज राहुल गांधी के पंद्रह सालों के लोक सभा सदस्य के कार्यकाल में उन्होंने क्या किया है तो पाते हैं कि आज़ तक उन्होंने किसी सरकार की – चाहे उनके अपनी पार्टी की सरकार हो या उनके विपक्ष की – कोई सकारात्मक सहयोग नहीं किया है। कोई भी एक डिबेट नहीं है जो उन्होंने नेतृत्व किया हों। कोई नयी सोच उनके नाम की नहीं है। अगर उनके नाम का कुछ उल्लेखनीय कार्य है तो वो है उनकी अपनी सरकार के अध्यादेश को संविधान के बाहर फाड़ देना। या विदेशों में प्रेस कांफ्रेंस देना और उनमें तथ्यात्मक झूठ बोलकर आ जाना। और उन झूठ के बोल जाने के बाद कभी कोई माफ़ी या स्पष्टीकरण नहीं देना। इस तरह राहुल गांधी भारतीय राजनीति के गोली चलाकर भाग जाने वाले आतंकवादी जैसे भूमिका निभा रहे हैं। जिस तरह आतंकवाद आज के युग में एक कम खर्च वाला युद्ध नीति है उसी तरह सोशल मीडिया के ज़रिए तथ्य विहीन भ्रम फैला कर उसकी ज़िम्मेदारी से बच निकलना और एक कम खर्च में सरकार विरोधी प्रोपेगंडा फैलाना राजनीतिक आतंकवाद है।
आज की सोशल मीडिया वाले समय में उनकी ये रण नीति बहुत काम आ रही है क्योंकि उनकी हर ऐसी घटना से एक मीडिया लहर उठती है और जब तक लोग इसको समझते हैं या जब तक सरकार इसको समझती है तब तक वो फिर एक और नया तथ्यविहीन जुमला शुरू कर देते हैं। पिछले एक महीने में उन्होंने अग्निवीर पर झूठ फैलाया और कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया। संविधान बदलने वाली झूठ , खटखट वाला जुमला, जाति जनगणना वाला हंगामा सब इसी के उदाहरण हैं।
पर राहुल गांधी को अब ये समझ जाना चाहिए कि झूठ की लहर एक बार चल सकती है बार बार नहीं। इस रण नीति का असर वैसे भी कम होता दिख रहा है। ED रेड वाले एक्स पोस्ट पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। दलित आरक्षण में वर्गीकरण में भी उनकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। और अब वक़्फ़ एक्ट भी आ गया है।
तो बीजेपी ने राहुल गांधी के राजनीतिक आतंकवादी गतिविधियों पर सर्जिकल स्ट्राइक करना सीख लिया है। उन्होंने ने प्रधान मंत्री को इस से अलग कर दिया है और अनुराग ठाकुर , संबित पात्र और अश्विनी वैष्णव को सामने लगा दिया है। राहुल गांधी को उसी उद्दण्ड भाषा में जवाब मिल रहा है। ये देखना है कि ये उद्दंडों वाली भाषा शैली अब भारतीय राजनीति में आम हो जाएगी या राहुल गांधी के लिए सुरक्षित रखा जाएगा।




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