चार दिन की ऑपरेशन सिंदूर के एकदम से स्थगित हो जाने से पूरी देश की जनता सकते में आ गई थी। हर किसी को यही लग रहा था कि कहीं फिर से इकहत्तर और पैंसठ तो नहीं दुहराया गया है। फिर सेना ने, रक्षा और विदेश मंत्री ने और फिर प्रधान मंत्री ने लोगों को ये भरोसा दिलाया कि युद्ध स्थगन का निर्णय देश हित में है।

प्रधान मंत्री की विश्वसनीयता से जनता अभी शांत तो जरूर है पर सब के मन में ये सवाल जरूर है की आख़िर क्या हुआ कि हम जीत के शिखर पर ऐसा निर्णय लेना पड़ा। देश की जनता को हज़ार साल का दर्द फिर से चुभ गया।

मुहम्मद गोरी को सोलह बार छोड़ा गया था पर उस सत्रहवें बार ने इस सभ्यता की दिशा बदल दी। आज इस चार दिन की लड़ाई के बाद जीत रही सेना के हाथ पीछे बांध कर हमने इस स्वतंत्र भारत में ऐसी गलती पाँचवी बार कर ली है। 1948, 1965, 1971, 1998 और 2025.

क्या एक हज़ार साल के बाद फिर हम सोलह बार का इंतज़ार करेंगे। अगर हम जीत रहे थे और अगर हमारी सेना को दो दिन और चाहिए था पाकिस्तान की सैन्य शक्ति को कम से कम दस साल के लिए तबाह कर देने के लिए तो क्यों नहीं किया गया ? क्यों हमने इस सांप की बस एक लाठी मारकर चोर दिया। ये कहाँ की और कौन से कूटनीति या कौन सी रण नीति है।

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