लगभग 80 वर्ष की आयु में इस दुनिया को अलविदा कहने वाले शिबू सोरेन ने अपने जीवन में क्रांति की कई कहानियां लिखीं। उनके निधन पर उनके राजनीतिक सलाहकार रहे पी.एन. पांडेय ने गहरी संवेदनाएं व्यक्त करते हुए उनकी जीवनी पर विस्तार से प्रकाश डाला।

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पी.एन. पांडेय के अनुसार, शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को नहीं, बल्कि फाल्गुन महाशिवरात्रि के दिन 1946 को हुआ था। आजादी के ठीक एक साल पहले। उनके बचपन का नाम शिवचरण मांझी था, जिसे बाद में शिबू सोरेन के नाम से जाना गया। उनके पिता सोबरन मांझी और माता सोना देवी थीं।


पी.एन. पांडेय बताते हैं कि शिबू सोरेन के पिता सोबरन मांझी एक गांधीवादी शिक्षक थे और वे झारखंड में महाजनों के अत्याचारों का विरोध करते थे। महाजन आदिवासियों को कर्ज के जाल में फंसाकर उनकी जमीनें हड़प लेते थे, जिसका सोबरन मांझी हमेशा विरोध करते थे। इसी विरोध के कारण 27 नवंबर 1957 को उनकी हत्या कर दी गई, जब शिबू सोरेन मात्र दसवीं कक्षा के छात्र थे और चित्तरंजन सहाय शिक्षक की देखरेख में पढ़ाई कर रहे थे।
इस घटना ने शिबू सोरेन को भीतर तक हिला दिया। वे पढ़ाई छोड़कर इस जुल्म का बदला लेने और महाजनी प्रथा को खत्म करने का प्रण ले चुके थे। उन्होंने आदिवासियों को संगठित करना शुरू किया और 1970 तक इस आंदोलन की कमान अपने हाथ में ले ली। इसी दौरान उन्हें दिशोम गुरु की उपाधि मिली।

झामुमो की स्थापना: संघर्ष की एक नई कहानी
महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन को और मजबूत करने के लिए शिबू सोरेन ने बोकारो के जैनामोड़ को अपना मुख्यालय बनाया। बाद में धनबाद के टुंडी क्षेत्र के पोखरिया पंचायत में आश्रम बनाया, जहां से वे आदिवासियों को एकजुट करते रहे। इसी दौरान उनके आंदोलन में विनोद बिहारी महतो और ए.के. राय जैसे बड़े नेता भी शामिल हुए। पी.एन. पांडेय के अनुसार, विनोद बिहारी महतो के शिवाजी समाज और शिबू सोरेन के सोनोत संथाल सुधार समिति के प्रयासों को मिलाकर 4 मार्च 1974 को दुमका में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) का गठन किया गया। संथाल परगना में आदिवासियों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ लड़ने के लिए सबसे पुराने विधायक साइमन मरांडी उन्हें दुमका ले गए थे।

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शिबू सोरेन का संघर्ष सिर्फ आदिवासियों तक सीमित नहीं था। उन्होंने अपनी मेहनत से गैर-आदिवासी समाजों में भी अपनी पैठ बनाई। धनबाद के तत्कालीन उपायुक्त क्रमशः लक्ष्मण शुक्ला, के.बी. सक्सेना, चंद्रमोहन झा और के.पी. सिन्हा के साथ-साथ उनके सहयोगी दुर्गा तिवारी, बसंत पाठक और स्टीफन मरांडी ने उनके आंदोलन को धारदार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पी.एन. पांडेय स्वयं 1987 में शिबू सोरेन के साथ जुड़े। उनके नेतृत्व में 1989 में झामुमो ने पहली बार लोकसभा चुनाव में चार सीटों पर जीत हासिल की, जो झारखंड के लिए एक ऐतिहासिक पल था।

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उत्तराधिकारियों से अपेक्षाएं

शिबू सोरेन के निधन के बाद, पी.एन. पांडेय ने उनके उत्तराधिकारियों से एक भावुक अपील की है। उन्होंने कहा कि झारखंड आंदोलन से जुड़े उन सभी लोगों और शिबू सोरेन के पुराने सिपहसालारों का सम्मान किया जाना चाहिए, जिन्होंने अभावों में भी उनका साथ नहीं छोड़ा। इन लोगों ने झारखंड राज्य के निर्माण के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। दिशोम गुरु शिबू सोरेन का जाना सिर्फ एक राजनीतिक व्यक्ति का निधन नहीं, बल्कि झारखंड के सपने को सच करने वाले एक क्रांतिकारी का जाना है। उनकी विरासत और संघर्ष की कहानी हमेशा झारखंड के लोगों को प्रेरित करती रहेगी।

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