
– मोद प्रकाश
ब्रिस्बेन, ऑस्ट्रेलिया
भारत के राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् के 150वें साल पूरे होने पर 7 नवंबर को शतपञ्चाशत वर्ष मनाने को लेकर पीएम मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में इस अवसर पर इस कालजई और राष्ट्रीयता से ओत – प्रोत कृति को घर – घर में पहुंचाने का संकल्प लिया। वंदे मातरम् भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का एक अमर और ऐतिहासिक गीत है, जो राष्ट्रभक्ति, त्याग और मातृभूमि के प्रति समर्पण की भावना का प्रतीक है। इसकी रचना 1870 के दशक में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने बंगाली उपन्यास आनंदमठ (1882) में की थी। इस गीत ने भारतियों में विदेशी शासन के विरुद्ध एकता और आत्मबल उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह गीत ब्रिटिश शासन के समय एक क्रांतिकारी नारा बन गया और स्वतंत्रता सेनानियों ने सभाओं, आंदोलनों और जुलूसों में इसे गाया और इसे गाते गाते अपने प्राणों की आहुति दे दी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में इस गीत को स्वर में प्रस्तुत किया और बाद में 1905 में दूसरी बार उन्होंने ही 1905 में बंग भंग के विरोध में कांग्रेस अधिवेशन में गाया।
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वंदे मातरम् का प्रत्यक्ष अर्थ है “हे माँ, तुझे प्रणाम,” जिसमें राष्ट्र को मां के रुप में आदर दिया गया है, जो उस समय एक भावनात्मक और आध्यात्मिक आधार बना। इस गीत ने समाज में भाषाई, धार्मिक तथा क्षेत्रीय विविधताओं से ऊपर उठकर एक व्यापक राष्ट्रीय पहचान स्थापित करने में योगदान दिया। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान इसके गान को कई बार ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित किया क्योंकि यह जनता में संघर्ष और एकता की भावना जगाता था। हमारे देश की ये विडंबना है कि इस ईश्वर प्रदत्त वाणी को, जो महान देश भक्त लेखक श्री बंकिमचंद्र की कलम से साकार रूप में हमे मिला, हमारे नेताओं ने देश की अस्मिता के विरोधी ताकतों की वजह से काट छांट कर छिन्न भिन्न कर दिया।
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मुसलमानों ने, जिन्होंने 800 सालों से इस सभ्यता के साथ अत्याचार किया, एक बार फिर से अपने सभ्यता-विरोधी आक्रमण शुरू कर दिया। वंदे मातरम् के खिलाफ मुस्लिम आपत्तिें शुरुआती दशकों में — व्यक्तिगत और धर्म-आधारित संवेदनशीलता के रूप में — दिखाई देने लगीं, पर राजनीतिक और संगठित विरोध 1920–1930 में स्पष्ट होकर उभरा। खास तौर पर 1923 के कांग्रेस सत्र में सार्वजनिक आपत्ति दर्ज हुई और 1937–38 के दौर में मुस्लिम लीग और मुहम्मद अली जिन्ना ने इसे स्पष्ट रूप से अस्वीकार्य कहा। कुछ इस्लामी विचारक/सामुदायिक नेता गाने की कुछ पंक्तियों को मूर्तिपूजा-प्रधान या देवियों (जैसे दुर्गा, लक्ष्मी) का संदर्भ मानकर धार्मिक रूप से अस्वीकार करते थे — इसीलिए व्यक्तिगत/धार्मिक स्तर पर आपत्तिें काफी पहले से थीं।
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इसके अलावा आनन्दमठ (जिसमें यह गीत है) के कथानक पर कुछ विद्वानों ने “मुसलमान विरोधी” रुख का आरोप भी लगाया। कांग्रेस के काकीनाडा सत्र (1923) में गान-प्रदर्शन के समय अध्यक्ष मौलाना मुहम्मद अली ने गाने पर आपत्ति उठाते हुए उसे होने से रोका। 1937 में मुस्लिम लीग ने अपने अधिवेशन में वंदे मातरम् पर आपत्ति जताई और 1938 में मुहम्मद अली जिन्नाह ने भी इसे अस्वीकार्य बताया। अंततः स्वतंत्रता-आन्दोलन में देश भक्तों को उद्वेलित करने वाले इस ईश्वरीय सूत्र को कांग्रेस-नेतृत्व और बाद में संवैधानिक प्रक्रिया ने इसके पहले दो छंदों को ही राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार किया और बाकी पंक्तियां को छोड़ दिया।
हमने हजारों सालों से विदेशी संस्कृति के आक्रांताओं के सामने कभी संघर्ष किया और कभी समझौता किया। पर, अंग्रेजों से देश की स्वतंत्रता के बाद, और हजार सालों की परतंत्रता के बाद, जब हमने उस आक्रांता संस्कृति को पूरी एक अलग जमीन दे दिया, तो फिर उस के बाद भी उस संस्कृति से समझौता क्यों? वंदे मातरम ने हजारों-हजारों युवाओं को इस गीत पर हंसते हंसते अपने प्राणों को देश की बलि बेदी पर अर्पण करने को प्रेरित किया। फिर जब देश आजाद हुआ तो इस गीत के हृदय को क्यों चीर दिया? इसकी आत्मा उन पंक्तियां में बसी हैं, जिसमें बंकिम चंद्र ने इस देश को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती से आह्वान किया। हमारे कुछ तात्कालिक सफेदपोशों ने अपने छद्म अस्तित्व की वजह से हमारी सभ्यता की आर्तनाद को दबा दिया। अब, जब की हमारे देश में हमारी सरकार है, हमारे इस पावन धरती को हिंदू और सनातन संस्कृति की धरती का दर्जा दे दिया जाए और हमारे वंदे मातरम गीत को उसके अपने पूर्ण महिमा और गौरव के साथ देश की धरा को पूजने का शीर्ष मंत्र के रूप में स्थापित किया जाय।
- लेखक वरिष्ठ विश्लेषक व समीक्षक हैं तथा ये इनके व्यक्तिगत विचार हैं।





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