
- मोद प्रकाश
वरिष्ठ विश्लेषक व समीक्षक।
राहुल गांधी की “मूर्खता” कोई संयोग नहीं; यह धीमी, लेकिन सोची-समझी राजनीतिक लड़ाई है। पिछले एक दशक से भारत राहुल गांधी को भाषणों में उलझते, तथ्यों को गड़बड़ करते, अपनी ही बातों का असर 24 घंटे में खोते, बदलते और उसी तरह की राजनीतिक ड्रामेबाज़ी करते हुए देख रहा है, जो उन्हें इंटरनेट मीम का सर्वाधिक पसंदीदा चारा बना देती है। इसी समयावधि में देश ने उन्हें गंभीरता से नहीं आंका है। सामान्य धारणा यही है कि उन्हें पता ही नहीं कि वे क्या कर रहे हैं, कि वह गंभीर नहीं हैं और कि वह राजनीतिक रूप से अयोग्य हैं। लेकिन, मेरे विचार से यही मूर्खता और नौटंकी उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक सफलता है? उनकी लगातार गलतियां, अक्षमता का प्रमाण न होकर, किसी ऐसे दीर्घकालिक एजेंडे का हिस्सा हों जिसका लक्ष्य किसी एक चुनाव को नहीं बल्कि भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को धीरे-धीरे कमज़ोर करना है?
कोई देश केवल युद्ध या आर्थिक संकट से नहीं टूटता; एक राष्ट्र तब कमजोर होता है जब उसके नागरिक अपनी ही व्यवस्थाओं पर विश्वास करना छोड़ देते हैं। पैटर्न पर ध्यान दें: चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर बार-बार सवाल उठाना, भारतीय सेना पर नियमित रूप से संदेह जताने वाले बयान, न्यायपालिका की निष्पक्षता को कठघरे में खड़ा करने वाली टिप्पणियाँ और संवैधानिक संस्थाओं को अविश्वसनीय और संदिग्ध दिखाने वाली निरंतर बयानबाज़ी — ये सब मिलकर एक सामूहिक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। हर बयान, यदि अकेले देखा जाए, तो सामान्य राजनीतिक विरोध जैसा लग सकता है, पर जब वही बातें सालों तक बार-बार दोहराई जाती हैं तो वे धीरे-धीरे जनता के सामूहिक विश्वास को कमज़ोर करना शुरू कर देती हैं। और हाँ, इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि हर ऐसे बयान के पहले राहुल गांधी एक विदेश यात्रा करते हैं और उक्त यात्रा के दौरान किसी ना किसी भारत के शत्रु से मिलकर आते हैं।
संत कबीर ने सदियों पहले इसे सरल शब्दों में कहा था: “रस्सी आवत जात है, सिल पर परत निशान” — रस्सी पत्थर पर बार-बार रगड़ खाती है और अंत में निशान छोड़ देती है। ये मासूम सा दिखने वाला, कभी संसद में आँख मारने वाला, कभी टी शर्ट पहनकर तालाब में मछली पकड़ने वाला बाल-बुद्धि प्रौढ़ युवा रुद्राक्ष की माला और जनेऊ पहनकर कहीं सनातन सभ्यता का कालनेमि तो नहीं है?
नुकसान तुरंत दिखाई नहीं देता; नुकसान धीरे-धीरे संग्रहित होता है। लक्ष्य आज किसी स्तंभ को गिराना नहीं, बल्कि उसकी नींव को धीरे-धीरे इतना खोखला कर देना है कि वह एक दिन अपने आप गिर जाए। इतिहास इस बात का गवाह है कि विचारधारा आधारित विजय तत्काल नहीं मिलती, वह पीढ़ियों के संघर्ष की उपज होती है। संस्थाएं तब गिरती हैं जब जनता मानने लगे कि वे गिरने ही लायक हैं। सबसे प्रभावी विघटन वही होता है, जिसमें समाज को पता भी न चले कि उसे तोड़ा जा रहा है। इसलिए शोर-गुल वाली राजनीतिक लड़ाइयाँ उतनी खतरनाक नहीं जितना वे धीमे, मनोवैज्ञानिक युद्ध हैं जो जनमत और संस्थागत विश्वसनीयता के विरुद्ध लड़े जाते हैं।
निशाना कोई राजनीतिक दल नहीं; निशाना है विश्वास। जब आम नागरिक यह मानने लगते हैं कि उनका वोट अर्थहीन है, अदालतें निष्पक्ष नहीं हैं, सेना राजनीति से संचालित होती है और संस्थाएँ किसी के इशारे पर काम कर रही हैं, तब राष्ट्र एक बेहद खतरनाक मोड़ पर खड़ा हो जाता है। यह इसलिए नहीं कि ये आरोप सत्य हैं, बल्कि इसलिए कि विश्वास टूटना शुरू हो जाता है। और, जब विश्वास टूटता है, तो एकता, स्थिरता और समाज भी टूट जाते हैं। यही रोज-रोज़ की बयानबाज़ी का असली नुकसान है — यह सिर्फ शर्मिंदगी या मीम्स का मामला नहीं है और न ही केवल 24 घंटे के न्यूज़ साइकल तक सीमित है; यह लोकतंत्र में संदेह के सुनियोजित निर्माण की शुरुआत है।
यह बात विपक्ष के पक्ष या विरोध की नहीं है, यह जवाबदेही की बात है। लोकतंत्र को मजबूत विपक्ष और विरोध दोनों चाहिए, पर विरोध ऐसी स्थिति तक नहीं बढ़ना चाहिए कि वह संस्थाओं को ही खोखला कर दे। नीतियों की आलोचना कीजिए, सरकार से सवाल पूछिए, नेतृत्व को चुनौती दीजिए — पर जब एक पैटर्न लगातार संवैधानिक संस्थाओं की वैधता पर हमला करता है, एजेंसियों पर बिना सबूत आरोप लगाता है और जनता के मन में अविश्वास बोता है, तो वह राजनीति नहीं रहकर संस्थागत देशद्रोह बन जाता है। ऐसे मामलों में समाज, राज्य और न्यायपालिका को मिलकर यह तय करना चाहिए कि कहां और किस प्रकार से जवाबदेही लागू होगी।
चुप्पी की कीमत बहुत भारी है। भारत में लोग भावनात्मक दर्शक ज़्यादा हैं और संस्थाओं के रक्षक कम। हम हैशटैग ट्रेंड कर देते हैं, मीम्स शेयर कर देते हैं, वायरल क्लिप्स पर हँस देते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं; इसी बीच पत्थर पर निशान गहरे होते जाते हैं। अगर कोई सार्वजनिक नेता बार-बार ऐसे बयान देता है जो देश की संस्थाओं पर भरोसा कम करते हैं, तो हमें मिलकर पूछना चाहिए: जवाबदेही कहां है? कब गैर-जिम्मेदार बयान राष्ट्रीय नुकसान की परिभाषा में आएँगे? बिना प्रमाण के संस्थाओं को बदनाम करना कानूनी दायरे में क्यों नहीं आता? ये सवाल किसी एक दल के नहीं हैं; ये सवाल राष्ट्र की आत्म-रक्षा से जुड़े हैं।
नागरिकों के नाम मेरा संदेश यही है कि यह लड़ाई एक चुनाव की नहीं, बल्कि राजनीतिक जागरूकता की है। हर बयान को मज़ाक मत समझिए, हर विवाद को मनोरंजन मत बनाइए और हर हमले को तात्कालिक मत मानिए। राष्ट्र की रक्षा अब केवल संसद या अदालत का कार्य नहीं रही; यह उस नागरिक का भी कर्तव्य है जिसे यह पूछना चाहिए: क्या हम उन संस्थाओं की रक्षा कर रहे हैं जो हमारी रक्षा करती हैं? यदि हम असफल रहे, तो इतिहास किसी एक नेता को दोष नहीं देगा; इतिहास दोष देगा उस जागरूक राष्ट्र को जिसने जागरूकता के बजाय मनोरंजन को चुना। सभ्यताएँ धमाकों से नहीं गिरतीं—वे तब गिरती हैं जब लोग दरारें देखना बंद कर देते हैं।
- ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।





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