
लोग अक्सर पूछते हैं कि मेरी कोई वैचारिक या राजनीतिक निष्ठा कहीं है या नहीं। मैं शाखाओं में कम ही जाता हूं, भाजपा की रैलियों में भी नहीं जाता हूं फिर भी अपने आपको संघी मानता हूं। मैं संघ और भाजपा दोनों की आलोचना भी करता हूं, पर अक्सर संघ के आलोचकों के विरोध में सबसे मुखर तरीके से तर्क रखता हूं। चुनाव के समय मोदी का भक्त हो जाता हूं और सामान्य काल में मोदी सरकार की ख़ामियां निकालता हूं। कभी कभी मैं वामपंथियों की सभाओं में भी दिख जाता हूं और कुछ कांग्रेसियों के गुण गाता दिखता हुई। लोगों का पूछना है कि क्या मेरे व्यक्तित्व में कोई विरोधाभास है?
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1925 में अपनी स्थापना के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक ऐसी वैचारिक धारा को रूप दिया, जो भारतीय सभ्यता की आत्मा, स्मृति और सांस्कृतिक चेतना से सीधे जुड़ती है। संघ केवल एक संगठन नहीं, बल्कि राष्ट्रवादोन्मेषी विचारधारा का वह जीवंत प्रवाह है, जो भारतीय समाज की गहरी जड़ों में स्पंदित होता है।
आज जब संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है, देश के कोने-कोने में उसकी भूमिका, उसकी दृष्टि और उसके योगदान पर विमर्श का वातावरण स्वाभाविक रूप से बना हुआ है। इसी परिवेश ने मुझे भी अपने भीतर झांककर यह समझने का अवसर दिया कि मैं स्वयं को “संघी” क्यों कहता हूं- चाहे मैं शाखाओं में नियमित न जाऊं, न प्रतिदिन राजनीतिक गतिविधियों में दिखूं।
व्यक्तित्व का विकास परिवार और पूर्वजों के संस्कार, धर्म और अध्यात्म से निर्मित चरित्र और शिक्षा प्रदत्त ज्ञान के एक मिले जुले स्वरूप के रूप में होती है। मेरे परिवार के संस्कारों ने मुझे कर्तव्य बोध से बहुत बाल्यकाल में ही अवगत करा दिया था। धर्म की सही व्याख्या मेरे पिताजी ने मुझे बचपन से ही बहुतेरे उदाहरणों द्वारा समझाया था और इसी कारण इस बात का बोध मुझे बहुत बचपन से था कि मेरे धर्म का एक भाग मेरे समाज और देश के प्रति मेरा कर्तव्य है। विज्ञान और आध्यात्म पर मेरे परिवार में अनगिनत वाद और विवाद ने मुझे ये सिखाया कि अपनी प्रज्ञा से कभी दूर नहीं भागो और चाहे जो भी हो, सत्य का अन्वेषण करने से नहीं चूको।
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देश के प्रति मेरे कर्त्तव्य बोध ने मुझे एक राष्ट्रवादी विचार से संलग्न होने की प्रेरणा दी और इसलिए मेरा संघ से जुड़ना बहुत स्वाभाविक था, क्योंकि मुझे इस बात को कहने में जरा भी परहेज नहीं है कि संघ की विचारधारा में स्वर्ण-शुद्ध राष्ट्रवाद उसके अस्तित्व के कण कण में निहित है। संघ ने मेरे वैचारिक चेतना के राष्ट्रवादी तत्वों को एक आकार और आधार प्रदान किया। मेरे पारिवारिक संस्कारों ने मुझे संघ के नेतृत्व पर विश्वास और आदर करना सिखाया। साथ ही मेरे वैज्ञानिक शिक्षा और आध्यात्मिक चेतना ने मुझे प्रज्ञा-पूर्ण प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए विवश किया है। मैं चाहूं भी तो अपने आपको इन प्रश्नों से अपने को अलग नहीं कर सकता हूं।
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संघ अगर नींव है तो भाजपा इस राष्ट्रवाद के मंदिर की दीवारें हैं। इस मंदिर की अन्य दीवारें, गुंबदें, स्तंभ संघ के अन्य आनुषंगिक संस्थाएं हैं। इस मंदिर के हर कण ने इस भारतवर्ष में सनातन संस्कृति को सुदृढ़ किया है। मैं इस नींव और इसकी दीवार की हर कण से जुड़ा हुआ हूं और इसलिए इनकी दीवारों पर रंग-रोगन चाक चौबंद रहे, इसकी जिम्मेदारी समझता हूं। अगर कुछ टूटे हुए गड्ढे दिखाई दें तो उसके बारे में जरूर प्रश्न करूंगा, क्योंकि मुझे इन गड्ढों में बड़ी दरार हो जाने का डर हमेशा रहता है, पर जिस समय मौसम खराब हो और आंधियां चलती रहे, उस वक्त अगर किसी ने इन दीवारों के रंग-रोगन पर प्रश्न किया, या किसी ने इन गड्ढों की आड़ में इन दीवारों में सेंध लगाने की कोशिश की तो मैं उसे विरोधी और सनातन द्रोही मानकर उसका भीषण विरोध करूंगा। भाजपा की नीतियों में अगर कुछ नीतियां मुझे गलत लगें तो मैं जरूर पूछूंगा पर अगर देश युद्ध के मध्य में हो और किसी ने इन नीतियों का विरोध करना शुरू किया तो उसका पुरजोर विरोध करूंगा।
संघ मार्गदर्शक है और भाजपा इस सनातन की सतत यात्रा का नायक। संघ अपौरुषेय वेद है, तो भाजपा कर्मयोगी कृष्ण की वाणी गीता। अर्जुन की तरह मैंने हमेशा अपने संघ के प्रचारक और मार्गदर्शकों से सवाल किए और किसी ने कभी बुरा नहीं माना। मुझे याद है जब मैं आई आई टी कानपुर में गुरु पूर्णिमा के बौद्धिक वचन के बीच में पूछा “मुगलसराय का नाम बदलने से हम इतिहास की एक सत्यता को नहीं दबा देंगे?” प्रो धुपद ने बहुत शांत चित्त से कहा, ” जरूर, इतिहास को सुरक्षित रखना जरूरी है, इसलिए नाम बदल देने के बाद पूरा इतिहास सही हो जाएगा – यह भी इतिहास हो जाएगा कि कभी किसी आक्रांता ने इसका नाम बदल दिया था, पर फिर जब हिन्दू-जागरण हुआ तो इसका नाम फिर से बदल दिया गया। अभी के इतिहास में सिर्फ यही दर्ज है कि इसका नाम मुगलों ने बदल दिया था।” मुझे जवाब मिल गया और इतनी स्पष्टता वाला जवाब मिला कि इस संबंध में सारे सवालों के जवाब मिल गए। उन्होंने मुझे सवाल पूछने से कभी मना नहीं किया।
प्रश्न उपनिषदों के प्राण हैं। पूरी उपनिषदों की नींव प्रश्नों की शिलाओं से डाली गई हैं और उन प्रश्नों के उत्तर ही उपनिषदों की विशाल प्राचीर है। इस सनातन सभ्यता ने हजार सालों से प्रश्न नहीं पूछे हैं और इसलिए हजार सालों से अपने-आप को बस बचाकर रखा है। हमें प्रश्न पूछने होंगे कि हजार सालों के बाद आज जब पुनरुत्थान का समय आया है, तो इस प्राचीर के कौन से स्तंभ जर्जर हो गए हैं और उन्हें ढाह देने की जरूरत है और कौन से स्तंभ आज भी अनुकूल हैं। कुछ दीवारें आज भी मजबूत हैं और उन्हें नए रंग-रोगन की जरूरत है। प्रश्न पूछेंगे तो नए प्राण का संचरण होगा। जिस तरह उपनिषदों में हमने चार्वाकों को भी नहीं छोड़ा, उसी तरह आज हम वामपंथियों को दुत्कारेंगे, नहीं परन्तु उनकी निंदा सुनकर अपने-आप को सुधरेंगे।
आज मेरा और मेरे आनेवाले वंश का आधार है ये सनातन संस्कृति और संघ इस संस्कृति का प्रहरी है और मैं उसका सिपाही। मेरा तन-मन जीवन इस सनातन को समर्पित है। अब मैं चाहकर भी इस से अलग नहीं हो सकता। संघ की विचारधारा इस सनातन संस्कृति से अभिन्न है और इसलिए एक बार जो संघ से जुड़ जाता है वो आजीवन संघी हो जाता है।
“एक बार संघी – आजीवन संघी।” यह वाक्य किसी संगठन की सदस्यता नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत प्रतिबद्धता, एक सांस्कृतिक उत्तरदायित्व और एक राष्ट्रधर्म-प्रधान जीवन-दृष्टि का घोष है।
(लेखक वरिष्ठ समीक्षक व विश्लेषक हैं और ये इनके व्यक्तिगत विचार हैं)।





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