
अशोक पांडेय
सत्ता का मद भी अजीब है। तख्त पर बैठने वाला शख्स यह भूल जाता है कि उसे भी कल खास से आम होना पड़ेगा। कहा गया है कि ‘ये शान-ओ-शौकतें सदा किसी की नहीं, बुझेंगे हर चिराग ये हवा किसी की नहीं।’ लेकिन, शायद कारोबारी-कौशल से अमेरिकी राष्ट्रपति का तख्त हासिल करने वाले डोनाल्ड ट्रंप सत्ता के मद में यह भूल गए हैं कि अमेरिकी जनता लोकतंत्र की पुजारी है और तानाशाही सोच को उखाड़ फेंकने का माद्दा रखती है।
ऐसे में घरेलू समस्याओं से जूझ रहे ट्रंप को अब विश्वनेता बनने की सूझी है। इसी सोच के तहत हुजूर की जुबान फिसली और कश्मीर पर भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता का आॅफर फोकट में दे दिया। हुजूर शायद यह भूल गये कि उनसे पहले भी कई और लोग कश्मीर पर मध्यस्थ बनने का ख्वाब देखते रह गए। साहब को यह बताना जरूरी है कि बिना बुलाए किसी के झगड़े में पंचायती करने वाले को हिन्दुस्तानी लोग घुसड़पंच कहा करते हैं। आॅफर मिलते ही कमाल हो गया। उधर साहब ने पंच बनने कहा, इधर दिल्ली ने प्रस्ताव को लतिया दिया। फिर भी हुजूर इतने से शर्मिंदा नहीं होने वाले।
अफगानिस्तान और इराक में सेना उतारकर आज तक भले ही बीमारी ढो रहे हैं। किसी पतली गली से निकलने की राह खोज रहे हैं, लेकिन ‘फेंकने’ की आदत नहीं गई। एक किम जॉन्ग उन से क्या भिड़े कि सारी शेखी निकल गई।
फेंकू प्रैक्टिस के तहत ही किम को खूब धमकाया। बम मारकर बर्बाद करने की धमकी दे डाली। जवाब में जब किम गुरार्या तो धमकाने वाले हुजूर पिद्दी पहलवान बन गए। समझौते को बेचैन होने लगे। मुलाकातें बढ़ीं और सुना है कि आजकल दोस्ती हो चली है। अब किम जैसे तानाशाह की गीदड़भभकी से थर्राने वाले लोग यदि भारत को छेड़ने की सोचें तो इसे मजाक नहीं तो और क्या कहा जाएगा। हुजूर के दरबारियों से गुजारिश है कि अपने फेंकू बादशाह को सलाह दें। सलाह यह कि पहले बिल्ली के दांत गिनना सीखें, उसके बाद शेर के मुंह में हाथ डालें।
ध्यान रहे कि भारत की मर्जी के विरुद्ध साजिशन यदि कोई खेल खेला गया, तो सवा सौ करोड़ से अधिक की आबादी बहुत भारी पड़ेगी। अमेरिकी इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने की कोशिश में हुजूर को भूगोल से खेलना नहीं चाहिए। भारत को खिलौना बनाने की सोच से पहले ट्रंप साहब को अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक, सीरिया और लीबिया में अपनी फजीहत का ध्यान रखना होगा। रही बात भारत की, तो आप बेफिक्र रहें। भारत को अपनी समस्याओं से निपटने की कला आती है। कश्मीर हमारा अटूट हिस्सा है और हम इसे दो पक्षों की बैठक में ही सुलझाएंगे। तीसरे की जरूरत हमें नहीं। हुजूर, भारत से खेलने की चेष्टा को अच्छी आदत नहीं कहा जाएगा। हो सके तो आदत बदल लीजिए। और अगर खुद नहीं बदल सके तो इत्मीनान रखिए, रही सही कसर भी जरूर पूरी हो जाएगी। दुनिया की चौधराहट के चस्के से तौबा कर लेना ही बेहतर है हुजूर। फैसला आप पर है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)