सतीश कुमार झा
सीतामढ़ी। मिथिलांचल की परंपरा अपने-आप में काफी धनी रही है। यहां के पारंपरिक त्यौहारों में से एक है मधुश्रावणी, जो नवविवाहिताओं के लिये जीवन की एक सीख से कम नहीं है। माता सीता की जन्मस्थली सीतामढ़ी में इन दिनों इस त्यौहार की धूम मची है। 15 दिवसीय नवसुहागिनों के इस महाव्रत का समापन तीन अगस्त को होना है। इसके पूर्व बोखरा प्रखंड के खरका सहित आसपास के विभिन्न गांवों में फूल लोढ़ने वाली नवविवाहिताओं की चहल-पहल और मधुश्रावणी गीतों से वातावरण मुग्ध बना हुआ है। श्रावणी में विवाहिता अपने पति के दीर्घायु होने एवं घर में सुख समृद्धि की कामना करती है पूरे व्रत के दौरान नवविवाहितायें गौरी-शंकर की विशेष पूजा-आराधना करती हैं। नवविवाहिता को शिवजी पार्वती समेत मैना पंचमी, मंगला गौरी, पृथ्वी जन्म, पतिव्रता, महादेव की कथा, गौरी की तपस्या, शिव-विवाह, गंगा-कथा एवं बिहुला कथा जैसे 14 खंडों की कथा सुनाई जाती है। इन कथाओं के माध्यम से शंकर-पार्वती के जीवन, पति-पत्नी के बीच होने वाली नोंक-झोंक, रूठना-मनाना, प्यार मनुहार जैसी बातों का जिक्र होता है, ताकि नवदंपति इनसे सीख लेकर अपने वैवाहिक जीवन को सुखमय बना सकें।
क्या है विशेष पारंपरिक विधि-विधान
मधुश्रावणी पूजा शुरू होने से पहले दिन नाग-नागिन व उनके पांच बच्चे (बिसहारा) को मिंट्टी से गढ़ा जाता है। साथ ही हल्दी से गौरी बनाने की परंपरा है। 13 दिनों तक हर सुबह नवविवाहिताएं फूल और शाम में पत्ते तोड़ने जाती हैं। इस पर्व में नवविवाहिता नयी दुल्हन की तरह सज-संवरकर तैयार हो सखियों संग हंसी-ठिठोली करती हर दिन डाला लेकर निकलती हैं। वहीं पंडित जी की कथा मनोयोग से सुनती हैं। पर्व समापन दिन नवविवाहिता के पति फिर से सिंदूरदान करते हैं और विवाहिता के पैर में टेमी (रुई की बत्ती) दागते हैं। इस त्यौहार के साथ प्रकृति का भी गहरा नाता है। मिट्टी और हरियाली से जुड़ी इस पूजा के पीछे का आशय पति की लंबी आयु होती है। यह पूजा नवविवाहिताएं अक्सर अपने मायके में ही करती हैं। पूजा शुरू होने से पहले ही उनके लिए ससुराल से श्रृंगार पेटी आ जाती है, जिसमें साड़ी, लहठी (लाह की चूड़ी), सिन्दूर, धान का लावा, जाही-जूही (फूल-पत्ती) होता है। मायकेवालों के लिए भी तोहफे होते हैं। सुहागिनें फूल-पत्ते तोड़ते समय और कथा सुनते वक्त एक ही साड़ी हर दिन पहनती हैं। पूजा स्थल पर अरिपन (रंगोली) बनायी जाती है। फिर नाग-नागिन, बिसहारा पर फूल-पत्ते चढ़ाकर पूजा शुरू होती है। महिलाएं गीत गाती हैं, कथा पढ़ती और सुनती हैं। ऐसी मान्यता है कि माता गौरी को बासी फूल नहीं चढ़ता और नाग-नागिन को बासी फूल-पत्ते ही चढ़ते हैं। मैना (कंचू) के पांच पत्ते पर हर दिन सिन्दूर, मेंहदी, काजल, चंदन और पिठार से छोटे-छोटे नाग-नागिन बनाए जाते हैं। कम-से-कम 7 तरह के पत्ते और विभिन्न प्रकार के फूल पूजा में प्रयोग किए जाते हैं।
मधुश्रावणी पूजा शुरू होने से पहले दिन नाग-नागिन व उनके पांच बच्चे (बिसहारा) को मिंट्टी से गढ़ा जाता है। साथ ही हल्दी से गौरी बनाने की परंपरा है। 13 दिनों तक हर सुबह नवविवाहिताएं फूल और शाम में पत्ते तोड़ने जाती हैं। इस पर्व में नवविवाहिता नयी दुल्हन की तरह सज-संवरकर तैयार हो सखियों संग हंसी-ठिठोली करती हर दिन डाला लेकर निकलती हैं। वहीं पंडित जी की कथा मनोयोग से सुनती हैं। पर्व समापन दिन नवविवाहिता के पति फिर से सिंदूरदान करते हैं और विवाहिता के पैर में टेमी (रुई की बत्ती) दागते हैं। इस त्यौहार के साथ प्रकृति का भी गहरा नाता है। मिट्टी और हरियाली से जुड़ी इस पूजा के पीछे का आशय पति की लंबी आयु होती है। यह पूजा नवविवाहिताएं अक्सर अपने मायके में ही करती हैं। पूजा शुरू होने से पहले ही उनके लिए ससुराल से श्रृंगार पेटी आ जाती है, जिसमें साड़ी, लहठी (लाह की चूड़ी), सिन्दूर, धान का लावा, जाही-जूही (फूल-पत्ती) होता है। मायकेवालों के लिए भी तोहफे होते हैं। सुहागिनें फूल-पत्ते तोड़ते समय और कथा सुनते वक्त एक ही साड़ी हर दिन पहनती हैं। पूजा स्थल पर अरिपन (रंगोली) बनायी जाती है। फिर नाग-नागिन, बिसहारा पर फूल-पत्ते चढ़ाकर पूजा शुरू होती है। महिलाएं गीत गाती हैं, कथा पढ़ती और सुनती हैं। ऐसी मान्यता है कि माता गौरी को बासी फूल नहीं चढ़ता और नाग-नागिन को बासी फूल-पत्ते ही चढ़ते हैं। मैना (कंचू) के पांच पत्ते पर हर दिन सिन्दूर, मेंहदी, काजल, चंदन और पिठार से छोटे-छोटे नाग-नागिन बनाए जाते हैं। कम-से-कम 7 तरह के पत्ते और विभिन्न प्रकार के फूल पूजा में प्रयोग किए जाते हैं।
– Varnan Live Report,