– विजय कुमार झा
बिहार में जाति आधारित जनगणना पर पटना हाईकोर्ट ने तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है। इस मामले में अगली सुनवाई अब तीन जुलाई को होगी। तब तक हाईकोर्ट ने किसी भी तरह की रिपोर्ट बनाने पर रोक लगा दी गई है। दरअसल, बिहार में वर्तमान नीतीश सरकार द्वारा कराई जा रही यह जातीय जनगणना शुरू से ही विवादों में रही है। इसके खिलाफ दायर याचिका में राज्य सरकार के अधिकार को चुनौती देते हुए यह कहा गया है कि बिहार सरकार को इसे कराने का संवैधानिक अधिकार ही नहीं है।
सच्चाई यह है कि राजनीति के चतुर खिलाड़ी नीतीश कुमार हर फैसले में अपना राजनीतिक फायदा देखते हैं। इसी वजह से उन्होंने दो चरणों में जातीय जनगणना का काम पूरा करने का ऐलान किया था। अभी इसका दूसरा चरण चल रहा है। पहले चरण का काम जनवरी, 2023 में पूरा हो गया था। फिर 15 अप्रैल से दूसरे चरण की शुरूआत हुई, जिसे 15 मई तक पूरा करना था। पहले चरण में लोगों के घरों की गिनती की गई। इसकी शुरूआत पटना के वीआईपी इलाकों से हुई। जबकि, दूसरे चरण में जाति और आर्थिक जनगणना का काम शुरू हुआ। इसमें लोगों के शिक्षा का स्तर, नौकरी (प्राइवेट, सरकारी, गजटेड, नॉन-गजटेड आदि), गाड़ी (कैटगरी), मोबाइल, किस काम में दक्षता है, आय के अन्य साधन, परिवार में कितने कमाने वाले सदस्य हैं, एक व्यक्ति पर कितने आश्रित हैं, मूल जाति, उप जाति, उप की उपजाति, गांव में जातियों की संख्या, जाति प्रमाण पत्र से जुड़े सवाल पूछे जा रहे हैं। लेकिन, दूसरे चरण का काम पूरा होने से पहले ही पटना उच्च न्यायालय ने गुरुवार को इस पर रोक लगा दी।
क्या होंगे राजनीतिक फायदे
एक बड़ा सवाल है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब वर्षों तक भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार चलाते रहे तो उन्हें इस जातीय जनगणना की याद क्यों नहीं आयी? अब जब नीतीश भाजपा से अलग होकर राजद के साथ सरकार चला रहे हैं तो उनकी सरकार आखिर राज्य में जातीय जनगणना क्यों करवाना चाहती है? इस मुद्दे पर जो बात खुलकर सामने आयी है, उससे साफ है कि नीतीश जातीय आधार पर बिहार के लोगों को बांटकर केवल वोट की राजनीति करना चाहते हैं। इससे सामाजिक जाना-बाना भले ही बिगड़ जाए, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
हिन्दुओं को बांटने की साजिश
जानकारों की मानें तो इसके कई कारण सामने आ रहे हैं। पहला है राजनीतिक फायदा। दरअसल, बिहार में ओबीसी और ईबीसी मिलाकर कुल 52 प्रतिशत से अधिक आबादी है। कुछ जानकारों का यह दावा है कि बिहार में लगभग 14 फीसदी यादव हैं। कुर्मी चार से पांच प्रतिशत हैं। कुशवाहा वोटर की संख्या आठ से नौ प्रतिशत के बीच है। सवर्णों की बात करें तो राज्य में उनकी कुल आबादी 15 प्रतिशत है। इनमें भूमिहार 06 प्रतिशत, ब्राह्मण 05 प्रतिशत, राजपूत 03 प्रतिशत और कायस्थ की जनसंख्या 01 प्रतिशत बताई जा रही है। मसलन, बिहार में अति पिछड़ा वर्ग भी निर्णायक संख्या में है। ऐसे में पूरा खेल इन्हीं वोटों के लिए है। राजनीतिक दलों को इसमें फायदा दिखता है। उन्हें लगता है कि इसके जरिए धर्म की बजाय जाति के आधार पर वोट पड़ेगा। इसका सबसे ज्यादा फायदा जदयू और राजद गठबंधन को मिल सकता है।
भागीदारी के हिसाब से आरक्षण का दांव
बिहार में जातीय आधार पर आरक्षण की मांग बहुत पहले से की जा रही है। जातीय आधार पर चलने वाले संगठनों का नारा है कि जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। मतलब, आबादी के हिसाब से ही आरक्षण दिया जाए। ओबीसी वर्ग से आने वाले लोगों का कहना है कि जिस तरह एससी-एसटी को संख्या के आधार पर आरक्षण दिया जा रहा है, उसी उन्हें भी उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण दिया जाए।
पिछड़ों को मुख्यधारा में लाने की कवायद
जबकि, बिहार की वर्तमान सरकार का दावा है कि जातीय जनगणना की रिपोर्ट आने के बाद पिछड़े लोगों की सही संख्या मालूम पड़ेगी और उसी के हिसाब से उन्हें उन सुविधाओं का लाभ दिया जा सकेगा, जो अभी तक उन्हें नहीं मिल पा रही हैं। सरकार का यह भी दावा है कि आबादी के हिसाब से उनके लिए सरकारी योजनाएं बनाई जाएंगी, ताकि उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाकर पिछड़े वर्ग के लोगों की जिंदगी बेहतर बनाई जा सके।
धार्मिक आधार ध्रुवीकरण की राजनीति
सच कहें तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी सरकार में साझेदार राजद के नेताओं को यह लगता है कि भारतीय जनता पार्टी अगर आज देश या कई राज्यों की सत्ता पर काबिज है तो इसका आधार हिन्दुत्व के नाम पर ध्रुवीकरण होना है। ऐसे में तुष्टिकरण की राजनीति के सहारे एक सम्प्रदाय विशेष के ज्यादातर वोट तो उनके पक्ष में मिलते ही हैं, फिर क्यों न भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति का जवाब जातिगत राजनीति के सहारे दिया जाय? कुल मिलाकर, बिहार में जातीय जनगणना का मकसद हिन्दुओं को आपस में बांटकर जातिगत आधार पर राजनीति का एक नया खेल खेलने के अलावा और कुछ नहीं दिखता है। वैसे, इस मुद्दे पर फैसला तो अब न्यायालय को ही करना है।