संघर्ष की जीवंत प्रेरणा हैं डॉ. अशोक सिंह : खेत-खलिहान से राष्ट्रपति पुरस्कार तक का सफर एेसे किया तय

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बोकारो नहीं नहीं, पूरे बिहार-झारखंड और देश में शिक्षा जगत मं डॉ. अशोक सिंह का नाम आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। बोकारो स्थित चिन्मय विद्यालय को एक नए मुकाम पर पहुंचाने वाले, सीबीएसई स्कूलों में गणित की स्वलिखित पुस्तकों की तूती मनवाने डॉ. अशोक ने जो मुकाम पाया, वह यूं नहीं मिल जाता। जीवन का हरेक पल कैसे जिया जाता है और कैसे संघर्ष आत्मविश्वास के बल पर एक सफल शख्सियत पाई जा सकती है, आइए जानते हैं खुद राष्ट्रपति पुरस्कार सरीखे कई विश्वप्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजे गए डॉ. अशोक सिंह की कलम से-

पल पल जीना ही जिंदगी, जिस दिन थक गया, समझो थम गया

अ सल जिंदगी वही है, जब हम इसके पल-पल का सदुपयोग करें। यानी पल-पल जीना ही असली जिंदगी है। जिस दिन हम थक गए और खुद को थका-हारा समझकर, लाचार और असहाय मानकर रुक गए तो समझिए हमारी जिंदगी, हमारे हौसले, हमारे इरादे वहीं रुक गए। मैं अगर अपनी बात करूं तो जिस हालात में मैं पला-बढ़ा, सीधे वहां से सफलता के उस मुकाम पर पहुंच पाना इतना सहज नहीं, जहां आज ईश्वर ने मुझे प्रतिष्ठापित किया है। मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के एक छोटे से गांव में हुआ। एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में जन्म लेने के बाद विश्वस्तरीय अच्छी शिक्षा-दीक्षा पाना अपने-आप में एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण रहा। लेकिन, ईश्वर के आशीर्वाद, माता-पिता के पूर्ण सहयोग और विपरीत परिस्थितियों से हर पल आगे बढ़ने की सीख लेते हुए मैंने अपने लक्ष्य की ओर अपना कदम आरंभ से ही बढाना शुरू कर दिया था। खेत-खलिहान में पिता के साथ काम करते हुए मैंने सरकारी स्कूल से ही स्कूली शिक्षा पूरी की। स्कूल-कॉलेजों में मेधावी छात्र के रूप में अपनी शिक्षा पाई।

बचपन से ही मेरे रुचि अध्यापन के क्षेत्र में रही और गणित मेरा पसंदीदा विषय रहा। एमएससी में कॉलेज टॉपर होने के बाद गणित में मेरा पीएचडी शोधपत्र भारत, कनाडा, ग्रेट ब्रिटेन, बेल्जियम, फ्रांस से निकलने वाले कई अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित किए गए। अध्यापन के क्षेत्र में विशेष रुचि के कारण मैंने बैंक की नौकरी तक छोड़ दी। बच्चों के साथ मेरा जुड़ाव हमेशा से ही बना रहा, क्योंकि बच्चे ही कल की जिंदगी है और उज्जवल भारत के भविष्य भी। उन्हें अगर सही दिशा दे दी तो समझिए देश को एक अच्छा मार्गदर्शन मिल गया। इसके साथ ही मैंने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। कभी कई कोस पैदल चलकर तो कभी मीलों साइकिलों पर चलकर बिना थके, बिना रुके अपने अध्यापन के दायित्व को पूरा किया। इसी कड़ी में कक्षा एक से 12वीं तक के लिए मैंने गणित की 13 पुस्तकें लिखीं, जिनमें से मैथ्स बूस्टर और सृजन मैथमेटिक्स देश के कई सीबीएसई सम्बद्ध स्कूलों में पढ़ाई जाती हैं। काफी वर्षों तक सीबीएसई तथा भारत सरकार के मानव संसाधन विकास विभाग की ओर से प्रदत्त कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वहन भी मैंने किया। पिछले 36 वर्षों से जारी मेरे अध्यापन-कार्य के परिणामस्वरूप आज कई छात्र दुनिया के कोने-कोने में उच्च पदों पर आसीन हैं और आज भी जुड़े हुए हैं। इसी क्रम में मुझे दर्जनों राष्ट्रीय पुरस्कार के लायक समझा गया और नवाजा भी गया। इनमें भारत सरकार के राष्ट्रपति पुरस्कार के साथ-साथ ब्रिटिश काउंसिल की ओर से ग्लोबल टीचर एक्रीडिटेशन अवार्ड, सीबीएसई टीचर अवार्ड आदि उल्लेखनीय हैं।

तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से पुरस्कार प्राप्त करते डॉ. अशोक सिंह (फाइल फोटो)।


आज अपनी 62 साल की आयु में भी मैं बच्चों से घिरा रहता हू। जिस दिन बच्चे आपको अपने माता-पिता से भी बढ़कर सम्मान देने लग जाएं, समझिए आप उसी दिन एक सफल शिक्षक हो गए।
मेरा यह भी मानना है कि बच्चों को खेल-खेल में पढ़ाना और उन्हें संस्कारित करना एक बड़ी उपलब्धि और चुनौती है। Spoon Feeding से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उनके आचार-विचार और व्यवहार को प्रदूषित होने से बचाना। एक बार बच्चे जागृत और प्रेरित हो गए तो फिर उन्हें साधारण से असाधारण और असाधारण से महान बनने से कोई नहीं रोक सकता। परिवार, समाज और देश का भविष्य आज के बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा पर निर्भर करता है। बच्चों को भी चाहिए कि सफलता के लिए वे असफलताओं से घबराए नहीं, बल्कि असफलता की सीढ़ी उससे चारगुना सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है। साथ ही, Short Cut का रास्ता न बनाएं, क्योंकि सच्ची कामयाबी के लिए कोई भी शॉर्टकट नहीं होता।
चलते-चलते निदा फ़ाज़ली की चार पंक्तियों के साथ अपने विचारों को यहीं विराम देता हूं-
अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए,
घर में बिखरीं हुई चीजों को सजाया जाए।
घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूं कर ले
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।
हरिओम!

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धन्यवाद।

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