
– Saroj Kumar Jha.
Blogger and Analyst.
भारत- लिखित संविधान का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र। भाषायी, जातीय व धार्मिक विविधता जहां एक ओर सामाजिक विविधता का कारण है तो दूसरी तरफ भौगोलिक विविधता शारीरिक व भौतिक जीवन के विविधता का कारण है। इन सभी विविधताओं को एकसूत्र में बांधता है भारतीय लोकतंत्र एवं इसकी रूपरेखा। हां, कुछ विवादास्पद व अनसुलझे उपबंध भी हैं, जिन्हें सामान्य नागरिक-जीवन में नजरअंदाज किया जाता है और करना चाहिए भी।
संविधान द्वारा संरचित भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी आजादी है ‘मतदान’। आप अपने सेवक को अपने लिए सेवा करने के पक्ष में अपने मत का दान करते हैं। असल विवेचना यही है चुनाव की, परन्तु क्या लोकतंत्र के लोकप्रिय पर्व चुनाव की महत्ता हम समझते हैं? क्या इसके उद्देश्य पर हमारे प्रतिनिधि खड़ा उतरते हैं? उत्तर तो मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में भी छुपा है और अतीत में भी।
गरीबी कहें या अशिक्षा, जातीय उन्माद कहें या मजहबी कट्टरता, हम कभी हिंदू होते हैं तो कभी मुसलमान, हम कभी सवर्ण होते हैं तो कभी पिछड़ा वर्ग, हम कभी मैथिलीप्रेमी होते हैं तो कभी भोजपुरीप्रेमी। हम अपने-अपने रस को चखना चाहते हैं, परंतु मतदान के आगाध महासागर में डुबकी लगाने से वंचित रहते हैं। जाहिर है हम जब कभी स्वयं इसके महत्व को नहीं समझेंगे तो हमारे प्रतिनिधि सेवक के बजाय राजतंत्र के महाराजाधिराज ही होंगे न। मतदान का उद्देश्य समाज की जमीन व जमीर को मजबूत करना होता है। आज सोशल मीडिया पर सभी अपनी जमीर की मजबूती तो दिखा देते हैं, लेकिन अपने संबंधित समाज की जमीनी कमजोरी पर समुचित ध्यान नही देते। हमारी मानसिकता का सीधा फायदा राजनीति को अभिनय समझने वाले लोगों को मिलता है। सोशल मीडिया पर एक कंबल वितरण और उस वितरण वाली फोटो को शेयर, लाइक्स या कमेंट्स हमारी मानसिकता तय करने लगा है कि हम किस प्रत्याशी को वोट करें। जबकि हम यह भूल जाते हैं कि हमारे वोट का जितना महत्व है, उतने ही महत्व उनके वोट का है जो सोशल मीडिया पर नहीं हैं या जिन्हें पूर्ण रूप से जमीन पर ही रहना है। अर्थात् एक आम जनता के रूप में एक ही समाज में एक ही छत के नीचे किसी प्रत्याशी को योग्य या अयोग्य करार देने के अलग-अलग मत व मुद्दे होते हैं, जबकि हमारी मांगें और जरूरतें समान होती हैं।
मतदान का वास्तविक उद्देश्य है कि हम एक आम जनता बिना किसी संकुचित सोच के एक स्वच्छ व उन्नतिप्रेमी प्रतिनिधि का चुनाव करें। अक्सर हमारे पास योग्य प्रतिनिधि विकल्प में नहीं होते। कभी-कभी होते भी हैं तो भी हम उन्हें वोट नहीं करते, क्योंकि उस प्रतिनिधि के पास किसी बड़ी राजनीतिक पार्टी का टिकट नहीं होता, प्रचार के लिए कोई अभिनेता या क्रिकेटर्स नही होता। हम इस असमंजस को राजनीतिक मजबूरी कहें या अपनी उदासीनता, लेकिन यह लोकतंत्र की खूबसूरती को कहीं न कहीं छिन्न-भिन्न अवश्य करता है। धन, बल व मजहबी उन्माद हमारी सोच तय करता है। यह तय करता है कि किस प्रतिनिधि को हम वोट करें। होश कम और जोश ज्यादा दिखता है हमारे सेवक चयन में।
क्या लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व मतदान का असली आनन्द हम लेते हैं? हम एक होते हैं, लेकिन भाषा, प्रान्त, धर्म व जाति हमें अनेक बना देता है। अर्थात् हम स्वयं ही स्वयं के दास होते हैं और कई पौराणिक कथाओं व पुस्तकों में यह कहा गया है कि एक गुलाम कभी मुक्तचिंतन नही कर सकता! देश आजाद है, मत आजाद है, लेकिन हमारी मानसिकता गुलाम ही है। बहरहाल, हमने लोकतंत्र के इस महोत्सव को कितना धूमिल बनाया, इसे अतीत समझकर बेहतर है कि वर्तमान व भविष्य को उत्कृष्ट बनावें तथा बिना किसी भेदभाव व संकुचन के सब मिलकर शत-प्रतिशत मतदान करें।
जय भारत, जय लोकतंत्र!
(लेखक युवा विश्लेषक व समीक्षक हैं।)