घनश्याम झा
दरभंगा : भारत के मानचित्र पर एक कराहता, पिछड़ता और सिसकता राज्य बिहार है, जहां हर वर्ष कोई न कोई आपदा निगलने के लिए मुंह बाए खड़ी रहती है। खासकर, बिहार के उत्तरी क्षेत्र, जिसे मिथिलांचल कहा जाता है, यहां पर आपदा विपदा त्योहार की तरह आन्ती जाती रहती है। हाल में ही चमकी बुखार से करीब 200 बच्चों की मौत से सिसक रही मां जानकी की जन्मस्थली मिथिला एक बार फिर बाढ़ से दहल उठी है। 2017 में आयी बाढ़ की भीषण तबाही से मिथिलावासी उबर भी नही पाए थे कि इसबार के बाढ़ ने उठने की कोशिश कर रहे गांवों को पूरी तरह अपाहिज बना दिया। उद्योग धंधे और बेरोजगारी की मार झेल रही मिथिला बाढ़ की दंश से बार-बार मर रही है। आम जनमानस सालभर पसीना बहाकर पैसे कमाकर अपना आशियाना बनाते तो हैं, लेकिन साल-दो साल पर बाढ़ आकर उसे नेस्तनाबूत कर देती है। लाखों रुपए की लागत से बने मकान मिनटों में ध्वस्त हो जाते हैं और सरकार छह हजार रुपये खाते में ट्रांसफर करके अपनी पल्ला झाड़ लेती है। उस छह हजार के लिए भी रुलिंग पार्टी के कार्यकर्ताओं एवं प्रखंड दौड़ने वाले गांव के ‘अच्छे-अच्छे मुंह-कान वालों’ को ‘चाय-पान’ देना ही पड़ता है। खैर, वो जो भी हो, लेकिन शून्य पर आ चुके उस पीड़ित को उसी छह हजार से पुन: अपनी आगे की जिंदगी का नवनिर्माण करना है। कुछ दिन तंबूओं में गुजारा, फिर आशियाना बनाने एवं पेट पालने के लिए पानी का स्तर कम होते ही दूसरे देशों में पलायन को उन्हें मजबूर होना पड़ता है। शायद सरकार की मंशा भी यही होती है।
सरकार के लिये ‘कामधेनु’

दूसरी तरफ, इस विषय पर गहन अध्ययन किया जाय तो सरकार के लिए यह बाढ़ एक कामधेनु गाय है। बाढ़ से पहले तटबंध की मरम्मत और निर्माण के लिए बड़ी-बड़ी परियोजना तैयार की जाती है। बने बनाये तटबंध पर मिट्टी डालकर राशि लूट प्रतियोगिता में सरकार, अधिकारी से लेकर मंत्री तक जमकर हाथ-पैर मारते हैं । करोड़ों रुपया बाढ़ के बाद मरम्मत के नाम पर खर्च दिखाया जाता है, लेकिन परिणाम तो ढ़ाक के तीन पात ही होते हैं। तटबंध टूटते हैं। फिर शुरू होता है “बाढ़ लूट” का असली एपिसोड। सरकारी डाटा खंगाले तो फूड पैकेट एवं कम्युनिटी किचेन के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च दिखाये जाते हैं, लेकिन अगर तटबंधों पर आसरा लिए लोगों के पास कुछ सामाजिक संगठनों द्वारा चलाए जा रहे राहत कार्य के जरिये भोजन पानी न पंहुचे तो कई लोग भूखे-प्यासे ही मर जाए। फूड पैकेट्स के नाम पर रुपए तो खर्च हो जाते हैं, लेकिन सही व्यक्ति तक पंहुचता है या नहीं, इसकी जांच आज तक हुई ही नहीं। यह तो है लूट की बाढ़ की बानगी है। और तो और, इस बीच अगर मुख्यमंत्री या कोई मंत्री बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के दौरे पर आ गये तो उसका खर्च अलग है। साहब हेलीकॉप्टर से आयेंगे, बिस्लेरी पीयेंगे। उसमें भी तो खर्च है। हमारी समझ में यह अभी तक नहीं आया है कि हेलीकॉप्टर से निरीक्षण करके होता क्या है? हर साल तो साहब आते हैं, बाढ़ से लड़ने का संकल्प लेते हैं, स्थायी निदान का आश्वासन देकर चले जाते हैं। लेकिन, स्थायी निदान के बजाय फिर अगले साल बाढ़ लेकर चले आते हैं।
बाढ़ में भी कालीन!

अब आप ही बताइये छाती पर हाथ धरकर कि मुख्यमंत्री बाढ़ के निरिक्षण में आये थे तो गाड़ी से उतरने वाले स्थान से निरीक्षण-स्थल तक काल१न बिछाने की क्या प्रासंगिकता है? आप स्थायी निदान लेकर आते तब कालीन की जगह फूलों का गद्दा आपके श्री चरणों के नीचे होता और यह लोगों को बिल्कुल भी नहीं खटकता। निरीक्षण करके तो चले गए, लेकिन कम से कम बाढ़ के बाद होने वाली परेशानियों पर तो ध्यान देकर जाते! पानी कम होते ही लोग बीमार हो रहे हैं, लेकिन न तो अस्पतालों में डाक्टर हैं और न ही दवा।
स्थायी निदान की पहल नहीं

आजकल सोशल मीडिया पर तरह-तरह की बातें देखने को मिलती हैं। कोई लिखता है, ‘बाढ़ का स्थायी निदान क्यों नहीं किया जाता’, तो उसे उसी के पोस्ट पर इतना जलील किया जाता है कि बेचारा पोस्ट डिलीट करके चैन की सांस लेता है। उसे लोग यह तक कह देते है कि ‘आप मानसिक रूप से कमजोर हैं। आपको पता होना चाहिए कि बाढ़ का कोई स्थायी निदान नहीं है।’ क्यों नहीं है भाई? बाढ़ का पानी नेपाल छोड़ता है। केंद्र सरकार उससे वार्ता क्यों नही करती है? पानी सीमित मात्रा में आता है तो फिर राज्य सरकार उसका उचित बंटवारा कर संचय क्यों नहीं करती? अब कई लोग कहते है कि बंटबारा कैसे होगा, भाई आधा से ज्यादा बिहार बाढ़ होने के बावजूद भयंकर सुखाड़ से ग्रस्त होता है! हम पानी को विभिन्न नदियों, उपनदियों और जलाशयों में संचय क्यों नहीं कर सकते? यही बाढ़ अगर गुजरात में आती तो वहां की सरकार इससे बिजली उत्पादन कर पूरे राज्य को सस्ती बिजली मुहैया करवा देती, लेकिन बिहार सरकार को तो शायद इस ‘जल-कामधेनु’ से अपना लाभ निकालकर मिथिला क्षेत्र के लोगों को बाढ़ में डुबोना है। जाहिर है, अगर स्थायी निदान मिल गया तो माननीय मंत्रीजी हेलीकॉप्टर से निरीक्षण कैसे करेंगें? राहत पैकेट के नाम पर अपनी जेबें कैसे भरेंगें? ऐसे में तो एक ही उपाय है कि जनता खुद सोचे कि उसे बाढ़ से कैसे निपटना है, क्योंकि नेताओं के लिये तो यह बस लूट की ‘बाढ़’ है।