समझें आजादी की कद्र और लायें बदलाव

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सरोज झा
आज हम सभी अपने देश का 73वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं। स्वतंत्रता शब्द चाहे दैहिक हो, वैचारिक हो, आर्थिक या सामाजिक हो, इसके लिए लोग हर प्रयास करना चाहते हैं। हजार साल की दासतां से आजादी के लिए हजारों शूरवीरों ने किस तरह से सर्वस्व न्योछावर किया। इसके लिए न जाने कितनी पुस्तकें लिखीं गयीं, इतिहास की रूप-रेखा तय की गयी। भारतीय इतिहास का सर्वाधिक गौरवशाली दिवस था वो, जब हमारी स्वतंत्रता पर वैधानिक मुहर लगायी गयी। 15 अगस्त 1947 को हमने विदेशी चंगुल से मुक्ति पायी, अखंड भारत के टुकड़े भी हुये, खून की नदियां भी बहीं, तथापि हम शायद इस रक्तरंजित दिवस की महत्ता को नहीं समझ पाते और यदि समझते हैं तो उसकी पर्याप्त कद्र नहीं कर पाते।

स्वतंत्रता के साथ ही तत्कालीन भारत के दो टुकड़े हुए, मानचित्र बदले नहीं, बल्कि बदल दी गये। पुरातन समाज में जाति भेद, छुआछूत, महिला उत्पीड़न आदि कुप्रथाओं पर संवैधानिक मुहर लगीं। मैं नहीं जानता कि इन सब कुप्रथाओं में कितनी सच्चाई थी, क्योंकि प्राचीन भारतीय समाज से संबंधित इतिहास की पुस्तकों में, मत्यस्य पुराण, ऋग्वेद जैसे प्रमाणिक ग्रन्थों में इन कुप्रथाओं का जिक्र जन्म आधारित नहीं बताया गया है। उषा, गारगी, मैत्री जैसे विभूषियां उन्नत समाज की बेहद सम्मानित स्त्रियां थीं। 100 प्रतिशत साक्षरता दर यह प्रमाणित करता है कि अपना प्राचीन समाज महिला उत्पीड़न, जाति- प्रथा वगैरह से दूर था। राजपूत शासन के समय विदेशी आक्रमण को सती प्रथा का जन्मदाता माना जाता है। सल्तनत, मुगल दौर में यह प्रथा अनिवार्य सी बन गयी! हालांकि, वे स्त्रियां अपने सतीत्व के रक्षार्थ अग्नि की बलि-वेदी पर चढ़ती थीं। ब्रिटिश शासन का दौर शुरू हुआ और कई समाजिक बुराइयों के खात्मे के साथ समाज में जाति प्रथा को सुनोयोजित तरीके से प्रबल बनाने की पुरजोर कोशिश की गयी। प्रश्न केवल हिंदू समाज के अंदर ही विखंडन का नहीं था, बल्कि और भी कई संप्रदायों का वर्चस्व भी था। जातीय लड़ाई, मजहबी बैर आदि ब्रिटिश शासन की नींव को टिकाये रखने में मददगार साबित हुआ।

अब भी पिछड़ापन
कभी 100 प्रतिशत साक्षर भारत से वर्तमान भारत की तुलना करें तो हमें समाज अभी पिछड़ा लगेगा। आर्थिक व वाणिज्यिक रूप से संपन्न भारत में आज सुबह से लेकर रात को सोने तक उपभोग की गयी वस्तुओं में शायद ही कोई ऐसी वस्तु हो, जिनमें विदेशी हाथ संलिप्त न हों। अपने मजबूत औद्योगिक ढ़ांचे को हमने ब्रिटिश साजिश के तहत धराशायी कर लिया। हमारे बच्चे जन्म लेते ही चाइनीज खिलौनों की ओर आकर्षित होते हैं और हम एक बेहतर भारत की कल्पना करते हैं। संविधान में जातीय अधिनियम, अल्पसंख्यक व जनजातीय कानून, क्षेत्र विशेष आधारित प्रावधान हमारे देश में सरकारी योजनाओं का आधार बनता है। लाखों प्रतिभाएं अपनी अस्तित्व की लड़ाई-लड़ते लड़ते दम तोड़ती हैं, गरीबों के नाम पर लड़ने वाले लोग कुबेर खजाने के मालिक बनते हैं। छोटे-छोटे मासूम बच्चों को शिशुवस्था से ही यह अहसास कराया जाता है कि वो गरीब हैं, अमुक जाति का है और उसके संतुलित आहार, समुचित इलाज वगैरह देश के खंडित सरकारी योजनाओं से तय किया जाएगा।

विकृत मानवता
एक गरीब आम जनता की असाध्य बीमारियां भी देश के भाग्य विधाताओं के रुटीन चेकअप की तुलना में कम मायने रखता है। सरकारी अस्पतालों में मानवता का विकृत विखंडन देखने को मिलता है, जहां कोई असहाय गरीब बच्चा उस अधिकार से वंचित होता है, जो अधिकार आला सेवकों के दूर-दूर के रिश्तेदारों तक को भी दी जाती है। चिकित्सीय जांच भी हमारे स्टेटस व हैसियत पर निर्भर करता है। सरकारी स्कूलों के लिए अरबों रुपए से बनी शिक्षा समितियां सुधार का बेहद हास्यास्पद प्रदर्शन करते दिखती हैं। नीति-निर्माण से सम्बंधित लोगों में से एक फीसदी के भी बच्चे भारत में निवास नहीं करते और यदि करते हैं तो तमाम निजी शिक्षण संस्थानों की शान बढ़ाते हैं।

सोशल मीडिया पर ही देशभक्ति
देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम सोशल मीडिया पर आज लोकप्रियता की जड़ेें बनकर रह गयीं। बड़े-बड़े नारों से लोकतंत्र की गरिमा मजबूत की जाती है। बरसात के मौसम में देश के तमाम इलाके बाढ़-ग्रस्त हो जाते हैं। रोकथाम व निपटने की हमारी तैयारी भले ही न हो, लेकिन ऐसी विभीषिकाएं सेल्फीप्रेमियों के जरिये यह संदेश अवश्य देती हैं कि हमें अब ऐसी त्रासदी झेलने की लत पड़ गयी हैं। बहुत पॉजिटिव हो गये हैं हम।

जमीनी सच जस की तस
15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस के उस क्षण को याद दिलाता है, जब हमें ब्रिटिश-अत्याचार से वैधानिक मुक्ति दी गयी। अत्याचारी बदल गये हों, स्वरूप बदल गया है, परंतु जमीनी सच जस की तस है या हो सकता है हमने समझौते कर लिए हैं। हां, हमने काफी कुछ पाया है, सुधार भी किये हैं, परंतु इनकी गति अत्यंत धीमी रही है। चंद्र-फतह और भूख से बिलखते मासूम जिंदगानियां हमारी तरक्की व जमीनी सच दोनों से ही रू-ब-रू कराता है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि चन्द्र फतह की आड़ में आप देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, मानसिक व समाजिक गुलामी, आर्थिक व औद्योगिक निकम्मेपन को नजर-अंदाज करें या इनके इनके उन्मूलन हेतु व्यक्तिगत भागीदारी बढ़ाएं। व्यवस्था को अचानक नहीं बदल सकते, लेकिन व्यक्तिगत भागीदारी व अपनी स्वदेशी निर्मित वस्तुओं के उपभोग, मानव-प्रेम से हम अपने पारिवारिक वातावरण अवश्य बदल सकते हैं। परिवार बदलेगा, तो समाज बदलेगा और समाज बदलेगा तो परिवर्तन का राष्ट्रीय पैमाना काफी आसानी से बदल जाएगा।
जय भारत, वंदे मातरम्!

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