प्रथम पूज्य देव भगवान गणपति

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image courtesy : google images

– गुरुदेव श्री नंदकिशोर श्रीमाली

ज्ञानानंदमयं देवं निर्मलं स्फाटिकाकृतिम्।
आधारं सर्वविद्यानां हयग्रीवमुपास्महे।।
ओंकारमाद्यं प्रवदन्तिसंतोवाच: श्रुतीनामपियं गृणन्ति।
गजाननं देवगणानताड्घ्रिं भजेअहमर्धेन्दुकृतावतंसम्।।

‘जो ज्ञान तथा आनन्द के स्वरूप हैं, निर्मल स्फटिक तुल्य जिनकी आकृति है, जो समस्त विद्याओं के परम आधार हैं, उन हयग्रीव गणेश की मैं उपासना करता हूं। जो आदि ओंकार हैं, वेद की ऋचाएं भी जिनकी स्तुति करती हैं, जिनके सिर पर अर्ध चन्द्र शोभायमान हैं, समस्त देवता जिनके चरणों में नतमस्तक हैं, उन श्री गणेश की मैं वंदना करता हूं।’

– Gurudev Shree Nand Kishore Srimali Jee.


श्री गणेश आदि स्वरूप, पूर्ण कल्याणकारी, देवताओं के भी देवता माने गए हैं, जिनकी उपासना एवं पूजा का उल्लेख वेदों में भी प्राप्त होता है। सभी प्रकार के पूजन में प्रथम पूजन का अधिकार गणपति का ही माना गया है। इसके पीछे ठोस शास्त्रीय आधार हैं, किसी भी कार्य को पूर्ण रूप से सिद्ध करने के लिए समुचित प्रयत्न करना पड़ता है, लेकिन कई बार सभी प्रकार के प्रयत्नों की पराकाष्ठा होने पर भी ऐन मौके पर कोई न कोई बाधा आ जाती है। इस प्रकार की बाधा को हटाने के लिए, जिनसे कार्य निर्विघ्न रूप से पूर्ण हो जाएं और जैसे-तैसे पूरा न होकर जिस सफलता के साथ पूरा करने की इच्छा है, उसी रूप में कार्य पूरा हो, इसके लिए गणपति पूजन विधान निर्धारित किया गया है।


गणेश पूजा ही क्यों?
प्रतिभा और ज्ञान की भी एक सीमा अवश्य होती है। व्यक्ति अपने प्रयत्नों से किसी कार्य को श्रेष्ठतम रूप से पूर्ण करते हुए उज्जवल पक्ष की ओर विचार करता है, लेकिन उसकी बुद्धि एक सीमा के आगे नहीं दौड़ पाती है। बाधाएं उसकी बुद्धि एवं कार्य के विकास को रोक देती हैं और यही मूल कारण है कि हमारे शास्त्रों में पूजा, साधना, उपासना को विशेष महत्व दिया गया है।
सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और पूर्णता ब्रह्मा, विष्णु और महेश द्वारा संपादित की जाती है, लेकिन सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही यह व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहे और विघ्न न आएं, यह भी गणेश के ही जिम्मे है। विघ्नकर्ता और विघ्नहर्ता, दोनों ही गणेश हैं, आसुरी प्रकृति के दुष्टों के लिए गणेश विघ्नकर्ता हैं तो उनकी पूजा, उपासना करने वाले भक्तों के लिए विघ्नहर्ता और ऋद्धि-सिद्धि के दाता हैं। इसलिए श्री गणेश को सर्वविघ्नहरण, सर्वकामनाफलप्रद, अनंतानंतसुखद और सुमंगलमंगल कहा गया है।
सभी प्रकार के देवता विभिन्न शक्तियों से संपन्न हैं, लेकिन विशिष्ट कार्य के लिए विशिष्ट शक्ति सम्पन्न देवताओं का स्मरण, पूजन, साधना संपन्न करनी पड़ती है, इसीलिए सभी पूजनों में, किसी भी कार्य को निर्विघ्न, पूर्ण फलयुक्त, मंगलमय रूप में पूर्ण करने हेतु भी गणपति का पूजन किया जाता है।
गणेश का स्वरूप शक्ति और शिवत्व का साकार स्वरूप है और इन दोनों तत्वों का सुखद स्वरूप ही किसी कार्य में पूर्णता ला सकता है। गणेश शब्द की व्याख्या अत्यंत महत्वपूर्ण है। गणेश का ‘ग’ मन के द्वारा, बुद्धि के द्वारा ग्रहण करने योग्य, वर्णन करने योग्य संपूर्ण भौतिक जगत को स्पष्ट करता है और ‘ण’ मन, बुद्धि और वाणी से परे, ब्रह्म विद्या स्वरूप परमात्मा को स्पष्ट करता है और इन दोनों के ईश अर्थात् स्वामी गणेश कहे गए हैं।

श्री गणेश के द्वादश नाम

सुमुकश्चैक दन्तश्च कपिलो गजकर्णक:।
लंबोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायक:।।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजानन:।
द्वादशैतानि नामानि य: पठेच्छृणुयादपि।।
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते।।

यह श्लोक गणेश पूजन और उनकी साधना, उपासना के महत्व को विशेष रूप से स्पष्ट करता है। इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति विद्या प्रारंभ करते समय, विवाह के समय, नगर में अथवा नए भवन में प्रवेश करते समय, यात्रा में कहीं बाहर जाते समय, संग्राम अर्थात शत्रु और विपत्ति के समय यदि श्री गणेश के इन 12 नामों का स्मरण करता है तो उसके उद्देश्य की पूर्ति में अथवा कार्य की पूर्णता में किसी प्रकार का विघ्न नहीं आता है। गणेश जी के यह 12 नाम-

  1. सुमुख, 2. एकदंत, 3. कपिल, 4. गजकर्ण, 5. लंबोदर, 6. विकट, 7. विघ्ननाशक, 8. विनायक, 9. धूम्रकेतु, 10. गणाध्यक्ष, 11. भालचंद्र, 12. गजानन हैं।
    इनमें से प्रत्येक नाम का विशेष अर्थ है और विशेष भाव है। संक्षिप्त में यही कहना उचित है कि साधक को अपने पूजा कार्य में गणेश की पूजा एवं इन नामों के जप को एक निश्चित स्थान अवश्य देना चाहिए।
    मंत्र साधना और तंत्र साधना का मार्ग गुरु गम्य माना गया है। जो साधक गुरु परंपरा से गणपति साधना सम्पन्न करते हैं, उन्हें चाहिए कि प्रतिदिन ‘गं गणपतये नम:’ की एक माला जप अवश्य करें। गणपति स्वयं ज्ञान और निर्माण को देने वाले हैं। ‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’ में कहा गया है कि गणपति ही एकमात्र ऐसे देवता हैं, जो सभी दृष्टियों से पूर्णता प्रदान करने वाले हैं। ‘लिंग पुराण’ में भी सभी देवताओं पर विचार करने के बाद यही निर्णय सर्वमान्य बताया है कि जीवन में पूर्ण सफलता गणपति और ऋद्धि-सिद्धि के माध्यम से ही संभव है।

    ऋद्धि-सिद्धि
    गणपति स्वयं बुद्धि सागर और उच्च कोटि के ज्ञानी थे। जब गणपति वयस्क हुए तो विश्वकर्मा विश्वरूप की दो लड़कियों से गणपति का विवाह होना सुनिश्चित हुआ। इन दोनों कन्याओं में से एक का नाम ऋद्धि और दूसरी का नाम सिद्धि था। इन दोनों ही कन्याओं से विवाह होने के उपरांत, जहां पर भी यह दोनों कन्याएं होती हैं, वहीं गणपति का वास होता है। विश्वकर्मा तो स्वयं समस्त भोगों को प्रदान करनेवाले और जीवन में पूर्णता देने वाले देव हैं। इसलिए इन दोनों की साधना से सुख प्राप्त होता है।
    कहते हैं ऋद्धि-सिद्धि साधना करने से भूमि लाभ, शीघ्र भवन निर्माण तथा परिवार में पूर्ण सुख-शांति प्राप्त होने की क्रिया उसी दिन से शुरू हो जाती है।
    कुछ समय बाद इन दोनों पत्नियों से एक-एक पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका नाम रखा गया ‘शुभ’ और सिद्धि से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ‘लाभ’ रखा गया। इस प्रकार शुभ-लाभ, ऋद्धि-सिद्धि और स्वयं गणपति से मिलकर यह परिवार अपने आप में पूर्णता और सफलता देने वाला बन गया।
    शास्त्रों में कहा गया है कि जो गृहस्थ हैं और अपने जीवन में सभी दृष्टियों से पूर्णता और सफलता चाहते हैं, उनको यह साधना अवश्य संपन्न करनी चाहिए। गणेश चतुर्थी भगवान गणपति की साधना-उपासना का उत्तम दिवस माना गया है।
    (साभार : निखिल मंत्र विज्ञान)

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