आम इंसान के रूप में भगवान कृष्ण ने अधर्म का समूल नाश कर कैसे की शुद्ध धर्म की स्थापना, पढ़ें यह विशेष आलेख

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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष…

– गुरुदेव श्री नन्दकिशोर श्रीमाली

भारतीय संस्कृति के इतिहास में कृष्ण जैसा अद्भुत व्यक्तित्व कोई दूसरा है ही नहीं। पूरे जीवन सामान्य पुरुष की तरह रहते हुए उन्होंने इतिहास की धारा बदल दी। आर्यावर्त में अधर्म का समूल नाश कर शुद्ध धर्म की स्थापना की। सबसे बड़ी बात उन्होंने जीवन में कर्म का सिद्धांत दिया। अपने जीवन में षोडश कलाओं को सिद्ध कर जीवन में स्थापित कर दिया।

कृष्ण के नाम से आज समस्त विश्व परिचित है। जनमानस में जो कृष्ण की छवि है, वह उन्हें ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित करती है और उनके ईश्वर होने से अथवा उनमें ईश्वरत्व के होने से इनकार भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि, इन कलाओं का आरंभ ही अपने आप में ईश्वर होने की पहचान है। फिर वह तो 16 कलापूर्ण देव पुरुष हैं। यहां पर ‘हैं’ शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है, क्योंकि दिव्य एवं अवतारी पुरुष सदैव मृत्यु से परे होते है। वे आज भी जन-मानस में जीवित ही हैं।

भिन्न-भिन्न स्थानों पर आज भी कृष्ण लीला, श्रीमद् भागवत कथा, रासलीला जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है और इन कार्यक्रमों के अंतर्गत श्री कृष्ण के जीवन पर तथा उनके कार्यों पर प्रकाश डाला जाता है। किंतु सत्य को न स्वीकार करने की तो जैसे परंपरा ही बन गई है। इसीलिए तो आज तक यह विश्व किसी महापुरुष का अथवा देव पुरुष का सही ढंग से आकलन ही नहीं कर पाया। जो समाज वर्तमान तक कृष्ण को नहीं समझ पाया, वह समाज उनकी उपस्थिति के समय उन्हें कितना जान पाया होगा, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है।
सुदामा जीवन पर्यंत नहीं समझ पाए कि जिन्हें वे केवल मित्र ही समझते थे, वह कृष्ण एक दिव्य विभूति हैं और उनके माता-पिता भी तो हमेशा उन्हें अपने पुत्र की दृष्टि से देखते रहे। दुर्योधन ने उन्हें हमेशा अपना शत्रु ही समझा। इसमें कृष्ण का दोष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कृष्ण ने तो अपना संपूर्ण जीवन पूर्णता के साथ ही जिया। कहीं वे ‘माखन चोर’ के रूप में प्रसिद्ध हुए तो कहीं ‘प्रेम’ शब्द को सही रूप से प्रस्तुत करते हुए दिखाई दिए।

कृष्ण के जीवन में राजनीति, संगीत जैसे विषय भी पूर्ण रूप से समाहित हैं और वे अपने जीवन में षोडश कलापूर्ण होकर ‘पुरुषोत्तम’ कहलाए। जहां उन्होंने प्रेम, त्याग और श्रद्धा जैसे दुरूह विषयों को समाज के सामने रखा, वहीं जब समाज में झूठ, असत्य, व्यभिचार और पाखंड का बोलबाला बढ़ गया तो उस समय कृष्ण ने जो युद्ध नीति, रणनीति तथा कुशलता का प्रदर्शन किया, वह अपने आप में आश्चर्यजनक ही था।
कुरुक्षेत्र युद्ध के मैदान में जो ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को प्रदान किया, वह अत्यंत ही विशिष्ट तथा समाज की कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करने वाला है। कृष्ण ने जो ज्ञान अर्जुन को दिया, वह अपने आप में प्रहारात्मक है और अधर्म का नाश करने वाला है। कृष्ण ने अपने जीवन काल में शुद्धता, पवित्रता एवं सत्यता पर ही अधिक बल दिया। अधर्म, व्यभिचार, असत्य के मार्ग पर चलने वाले प्रत्येक जीव को उन्होंने वध करने योग्य ठहराया, फिर चाहे परिवार का सदस्य ही क्यों ना हो और संपूर्ण महाभारत एक प्रकार से पारिवारिक युद्ध ही तो था।

कृष्ण ने स्वयं अपने मामा कंस का वध कर अपने नाना को कारागार से मुक्त करवाकर उन्हें पुनः मथुरा का राज्य प्रदान किया और निर्लिप्त भाव से रहते हुए धर्म की स्थापना कर सदा ही सुकर्म को बढ़ावा दिया।
कृष्ण का यह स्वरूप समाज सहज स्वीकार नहीं कर पाया, क्योंकि इससे उनके बनाए हुए तथाकथित धर्म, आचरण, जो कि स्वार्थ को बढ़ावा देने वाले थे, उन पर सीधा आघात था। समाज की झूठी मर्यादाओं को खंडित करने का साहस कृष्ण के बाद कोई दूसरा पुरुष नहीं कर पाया, क्योंकि जिस मार्ग पर कृष्ण ने चलना सिखाया, वह अत्यंत कंटकाकीर्ण तथा पथरीला मार्ग है और उस पर चलने का साहस वर्तमान तक भी कोई नहीं कर पाया। उन्होंने अपने जीवन में सभी क्षेत्रों को स्पर्श करते हुए वीरता को, कर्मठता को, सत्यता को विशिष्ट स्थान प्रदान किया।
कृष्ण ज्ञानार्जन हेतु संदीपन ऋषि के आश्रम में पहुंचे, तब उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पण कर ज्ञान अर्जित किया। गुरु सेवा की, साधनाएं कीं और साधना की बारीकियों तथा अध्यात्म के नए आयाम को जन-सामान्य के समक्ष प्रस्तुत किया। यह तो समय की विडंबना और समाज की अपनी ही एक विचारशैली है, जो कृष्ण की उपस्थिति का सही मूल्यांकन नहीं कर पाया।

श्रीमद भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जिस प्रकार योग विद्या का उपदेश दिया और उसकी एक-एक शंकाओं का समाधान करते हुए उसमें कर्तव्ययुक्त कर्म की भावना से जागृत किया, कृष्ण द्वारा दी गई योगविद्या, जिसमें कर्म योग, ज्ञान योग, क्रिया योग के साथ-साथ सतोगुण, तमोगुण, रजोगुण का जो ज्ञान दिया, उसी के कारण आज गीता भारतीय जन-जीवन का आधारभूत ग्रंथ बन गई है। इसीलिए तो भगवान श्री कृष्ण को योगीराज कहा जाता है।
कृष्ण जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण दिवस है और भगवान श्रीकृष्ण को षोडश कलापूर्ण व्यक्तित्व माना जाता है। जो व्यक्तित्व 16 कलापूर्ण हो, वह केवल एक व्यक्ति ही नहीं, एक समाज ही नहीं, अपितु युग को परिवर्तित करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है और ऐसे व्यक्तित्व के चिंतन, विचार और धारणा से पूरा जन-समुदाय अपने आप में प्रभावित होने लगता है।

भागवत में श्रीकृष्ण को ऐसा अवतारी माना गया है, जो भक्तों के वश में होते हैं। माता देवकी श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहती हैं- ‘हे आद्य पुरुष! आपके अंश का अंशांश वह प्रकृति है, उसी के सत्वादि गुण-भाग परमाणु द्वारा इस विश्व की सृष्टि, स्थिति और लय आदि हुआ करते हैं। मैं आपकी शरण में हूं।’ गीता में भी ऐसे भाव मिलते हैं। श्री कृष्ण कहते हैं -‘मैं अपनी माया के एक अंश मात्र से इस जगत् को व्याप्त करके स्थित हूं।’ अथवा -‘हे अर्जुन! इस विश्व में मुझसे परे कुछ भी नहीं है।’
इस तरह गीता तथा भागवत में श्रीकृष्ण को ज्ञान, भक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज- इन षड गुणों से सदैव संयुक्त माना गया है।

भगवान श्री कृष्ण का जीवन अलौकिक लीलाओं से परिपूर्ण आदर्श जीवन के साथ ही, श्रीकृष्ण में मानवता के सभी चरम और परम सद्गुणों का पूर्ण विकास था। वे गान विद्या और नृत्य कला के निपुण के ज्ञाता ही नहीं थे, वरन अपने काल के श्रेष्ठ समाज सुधारक भी थे। महान योगेश्वर तथा आदर्श राजनीतिज्ञ भी थे। उनकी राजनीतिक- कुशलता तथा मानवतावादी पवित्र राजनीतिज्ञता की कहीं कोई उपमा नहीं है। उनमें आदर्श, त्याग, न्याय, सत्य, दया, उदारता, यथार्थ, लोकहित तथा विलक्षण जन कल्याण का पूर्ण विकास है। उसमें कहीं भी व्यक्तिगत स्वार्थ,  निम्न महत्वाकांक्षा, अभिमान, द्वेष, अधिकार- मद तथा भोग प्रधानता को स्थान नहीं है।

गीता का सार यही है कि श्रीकृष्ण के दिव्य जन्म-कर्म को तत्वत: समझो। भगवान श्रीकृष्ण की आशा, आकांक्षा, मर्यादा, रुचि, प्रकृति और उपदेशों को पढ़कर, जानकर अपने जीवन में उन्हें उतारने का धैर्य पूर्वक प्रयत्न करना ही तत्वत: उनके दिव्य जन्म-कर्म को समझना है।
श्री कृष्ण को भगवान के साथ-साथ जगतगुरु भी कहा गया है और गुरु का तात्पर्य है देने वाला। कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर केवल भक्ति ही नहीं, पूर्ण विधि-विधान सहित साधना संपन्न कर कृष्ण के जीवन चरित्र और गुणों को अपने भीतर उतारा जाए तो कोई कारण नहीं कि व्यक्ति जीवन में असफल हो। आवश्यकता है केवल दृढ़ निश्चय की, संकल्प की, विश्वास की, श्रद्धा की। इन चारों के साथ साधना करने पर साधना सफल होती ही है।
(साभार : निखिल मंत्र विज्ञान)

– Varnan Live Special.

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